Tuesday, October 19, 2010

डेंगू नहीं हम गुंडे हैं

कसम फट्टे की, दावे के साथ कह सकता हूं कि इस बार डेंगू के गुंडे (म'छर) स्वर्गलोक में लोगों को पहुंचाने के लिए अधिकारियों से सैटिंग कर ही गंगानगर में घुसे हैं। तभी तो रोजाना ही मुझे मेरा कोई न कोई जानकार कहता मिल ही जाता है यार आज फिर प्लेटलेट्स कम हो गई। दाद देनी होगी डेंगू के गुंडो की, जो बिना डरे, सीना चौड़ा किए हुए गुंडागर्दी कर रहे हैं। डंक पर डंक मारकर अच्छे-भले आदमी को अस्पताल से स्वर्ग का रास्ता दिखाते जा रहे हैं।... और मेरे जैसे लोग फट्टे में टांग फंसाकर अधिकारियों से यह पूछने की गलती कर बैठते हैं साहब डेंगू के कितने रोगी सामने आए हैं? क्या उपाय किए जा रहे हैं? जवाब मिलता है कल तक नब्बे थे, आज सौ रोगी सामने आए हैं। फिर भी स्थिति नियंत्रण में है। अधिकारियों का जवाब सुनकर तो ऐसे लगता है जैसे सचिन तेंदुलकर द्वारा शतक मारने के बाद पूर्व कोच ग्रेग चैप्पल प्रशंसा कर रहे हों। मुझे तो सोचकर ही डर लगता है कि इस सार डेंगू के गुंडे गुंडागर्दी कर रहे हैं, तो अगले वर्ष क्या करेंगे। लो डेंगू के गुंडों की गुुंडागर्दी से पीडि़तों को मेरी तरफ से बधाई हो। क्योंकि कइयों के स्वर्ग सिधार जाने और दर्जनों के अस्पताल में पहुंच जाने के बाद आखिरकार लंबी तानकर सोने वाले पार्षदों और अधिकारियों की आंखें खुल ही गई। तभी तो कल नगर परिषद में बैठक हुई। बैठक क्या हुई, कसम फट्टे की भड़ास निकालने और बदले में सफाई देने तथा आश्वासनों का पिटारा खोलने की ही प्रतियोगिता हुई। काफी देर तक चली इस प्रतियोगिता में एक पार्षद ने ऐसे भड़ास निकाली, जैसे बैठक में ही डेंगू के म'छर ने पूरा मूड बनाकर उसे डंक मारा हो डेंगू बुखार की पहचान करने के लिए जिला चिकित्सालय में सीबीसी मशीन ही पिछले तीन माह से खराब पड़ी है। पार्षद की इस बात पर बेशर्मी हंसी भी आती है और गुस्सा भी। हंसी उनकी याददाश्त को लेकर आती है, जो तीन माह बाद सीबीसी मशीन खराब है के साथ वापिस आई। गुस्सा इसलिए आता है कि तीन माह के दौरान कई लोग स्वर्ग सिधार गए और दर्जनों लोग अस्पताल में इलाज करवाने पहुंचे। कोई गंगानगर में डा क्टरों के चढ़ावा चढ़ा रहा है, तो कोई लुधियाना, हिसार या चण्डीगढ़ अथवा जयपुर में मोटी रकम निजी चिकित्सालयों के दरबार में भेंट चढ़ा रहा है। लो अब चिकित्सा अधिकारी की भी सुन लो चिकित्सालय में रोगियों की बढ़ती संख्या के हिसाब से बेड और वार्ड कम पड़ गए हैं। वाह जी वाह, मजा आ गया कसम से। शहर में डेंगू के रोगी बढ़ रहे हैं, उसकी चिंता नहीं। चिंता है तो सिर्फ बैड और वार्ड की। मेरी तो सरकार से एड़ी से लेकर चोटी तक प्रार्थना है कि वह डेंगू को बेशक न भगाए, लेकिन वार्ड और बैडों की संख्या जरूर बढ़ाएं। तांकि डेंगू के गुंडों से प्रताडि़त होकर कोई अस्पताल में पहुंचे, तो उसे इलाज नहीं, बल्कि बैड जरूर मिल जाए। चिकित्सा अधिकारी की इस तरह की बातों से डेंगू के गुंडे जरूर खुश होते जा रहे हैं। भला खुशी क्यों न होगी। डेंगू के गुंडों को मारने की बजाय चिंता बैड और वार्डों की हो रही है। गंदे पानी के गड्ढों को डेंगू के गुंडों स्वीमिंग पूल और नालियों को नहर। गंदगी के ढेरों को वे किसी हिल स्टेशन की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। रात को सो रहे लोगों को डंक मार-मारकर उनका खून चूस रहे हैं ये गुंडे। ... ऐसे ही अनेक गुुंडे कइयों को अस्पताल और स्वर्गलोक तक पहुंचाने के बाद चिंतित दिखाई देने लगे हैं। ऐसे डेंगू वाले गुंडों की अपने-अपने इलाके में स्थित गंदगी के ढेरों में बैठकें हुईं। चिंतित डेंगू वाले गुंडों के नेता बोले अरे सभी भाईलोग गंगानगर में ही लोगों का खून चूसते रहे, तो खून की इतनी कमी आ जाएगी कि बाद में एक-एक मच्छर को एक-एक बूंद के लिए तरसना होगा। अरे गंगानगर के अलावा कहीं और भी तो जाओ। सभी के सभी कभी सेतिया का लोनी, तो कभी पुरानी आबादी या जवाहरनगर अथवा ब्ला क एरिया में ही लोगों का खून चूसे जा रहे हो। पगाीस-तीस किलोमीटर ही तो है पड़ौसी पाकिस्तान। इसलिए अ'छा है आधे पाकिस्तान में जाकर वहां के लोगों पर अपनी गुंडागर्दी का रौब दिखाओ। डेंगू वाले गुंडों की अ'छी-खासी बैठक में सराहनीय निर्णय यह लिया गया कि आधे डेंगू वाले गुुंडे पाकिस्तान जाएंगे।... लेकिन इस निर्णय की जानकारी गंगानगर नगर परिषद को मिल गई। तभी तो एक और बैठक आज भी बुला ली गई। अब बोलो कल सोमवार को बैठक के रूप में भड़ास निकालने, सफाई देने और आश्वासनों की प्रतियोगिता हुई थी और आज की बैठक में खून इकट्ठा करने के लिए फौज बनाने पर विचार। किसी जरूरतमंद डेंगू पीडि़त को खून की जरूरत हो, तो उसे तुरंत खून उपलब्ध हो जाए। यही उद्देश्य रहा आज ही की बैठक में। काफी दिनों से डेंगू की गुंडागर्दी की वजह से प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की कई बैठकें हो चुकी हैं, लेकिन बैठकों में सिवाय चर्चाओं के अलावा कुछ नहीं हुआ। छुटपुट प्रयास ही हुए। प्रयास भी ऐसे, जैसे दशहरे वाले दिन रामलीला मैदान में सत्तर फिट के विशालकाय रावण के पुतले में छुटपुट पटाखे फूटे हों। बाकी सारे के सारे फिस्से हुए हों। चलो डेंगू वाले गुंडों को भी मेरी तरफ से बधाई। उन्हें अब खून चूसने के लिए पाकिस्तान जाने की जरूरत नहीं, बल्कि उन्हें गंगानगर में ही खून मिल जाएगा। एक फौज तैयार हो रही है, जो जरूरतमंदों को खून तुरंत उपलब्ध करवाएगी। यही खून डेंगू वाले गुंडों का पेट भरेगी। मेरी बधाई सुनने के बाद डेंगू वाले गुंडे ऐसे नारे डेंगू नहीं हम गुंडे हैं, डेंगू नहीं हम गुंडे हैं.... लगाने लगे, जैसे कारगिल युद्ध में वीर जवानों ने नहीं बल्कि उन्हीं ने झण्डा फहराया हो। ... और मैं चला फट्टे महाराज की जय हो... जय हो... के जायकारे के साथ नए फट्टे की तलाश में।

Saturday, October 16, 2010

शुद्ध-अशुद्ध और युद्ध

लोगों को मिलावटी सामान देकर खुद की पांचों उंगलियां शुद्ध देसी घी में सुरक्षित रखने वाले कुछ लोगोंं को रात को ही नहीं, बल्कि दिन में भी छापामारी के सपने आ रहे हैं। ऐसे सपने जो अपने भी नहीं लगते। आमतौर पर शुद्ध के लिए युद्ध अभियान वाले विभाग पर हफ्ताबंदी जैसी बातें आम होती रहती हैं, अब वही विभाग दीपावली के सीजन में मिलावट करने वाले कुछ लोगों की उंगलियों पर चिपके घी को पिघलाने का मन बनाया है, तो इसका विरोध तो होना ही था। दीपावली के सीजन में अ'छी-खासी की लक्ष्मी की उम्मीद पर गुरूनानक बस्ती गड्ढे वाला पानी फिरे, यह सहन कैसे हो सकता है। उधर, दवाइयां बेचने वाले भी खफा हो गए हैं। कुछ दवा विक्रेताओं को दुकानों के निरीक्षण की कार्रवाई से काफी एलर्जी है। ऐसी एलर्जी कि यदि कोई निरीक्षण करे, तो खुजली होने लगती है। खुजली इतनी होती है बिना विरोध-प्रदर्शन के मिटती ही नहीं। ऐसी ही खुजली मिटाने के लिए सोमवार को कलक्ट्रेट पर पहुंचे कुछ दवा वाले भाईलोग। कमाल की बात है, दूसरों की खुजली मिटाने के लिए दवाई देेते हैं और खुद की खुजली मिटाने के लिए कलक्ट्रेट पर जाते हैं। खैर सबका अपना-अपना तरीका है खुजली मिटाने का। फट्टे में टांग फंसाने वाली बात यह है कि दीपावली के सीजन में जिस वस्तु की अधिक मांग रहती है, वे हैं खाने-पीने की। अब इन्हीं खाने-पीने वालों पर छापामारी की जा रही है। इसका विरोध भी हो रहा है। यदि ईमानदारी से छापामारी की जा रही है, तो ईमानदारी से चीजें बनाने और बेचने वालों के पेट में दर्द उठना ही नहीं चाहिए। दर्द और मरोड़े उठें उन लोगों के उठने चाहिए, जिनकी खुद की उंगलियां शुद्ध देसी घी में रहती हैं और वे दूसरों की उंगलियां तेल में डूबोते हैं। कलक्ट्रेट पर विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों में से ईमानदार और बेईमान पहचानने के प्रयास भी किए, लेकिन किसी के माथे पर बेईमान-ईमानदार का ठप्पा लगा दिखाई ही नहीं दिया। मांग सभी की एक, छापामारी बंद करो। अब बात करें शुद्ध के लिए युद्ध अभियान की। यह अभियान भी कोई अभियान हुआ, जो सप्ताह में सिर्फ दो दिन ही चलता हो। बुधर और वीर को ही होता है शुद्ध के लिए युद्ध। बाकी के दिनों में चाहे कितना ही बाजार में सामान अशुद्ध हो, लेकिन लगता है जैसे विभाग का होता है युद्धविराम। मिलावट करने वाले मिलावट कर अपनी उंगलियां घी में रखते हैं, लेकिन छापामारी करने वाले विभाग के अधिकारियों के भला क्या उंगलियां नहीं हैं। उनके भी उंगलियां हैं। उनकी उंगलियों को भी घी अ'छा लगता है। कुछ अधिकारियों ने अपने हाथों में दस्ताने पहनकर इन्हें घी (नोट) में भिगोया हुआ है, क्योंकि उंगलियों में तो कम दस्तानों में घी लगता है। चीनी-तेल वाला विभाग तो अपनी तरफ से शुद्ध के लिए युद्ध अभियान में लगा हुआ है, लेकिन स्वास्थ्य विभाग पूरे साल कुंभकरणी नींद में क्यों सोया रहता है। इस विभाग ने ऐसी कौन सी शुद्ध गोलियां गटकी हुई हैं, जिनकी नींद खुलने का नाम ही नहीं ले रहीं। हफ्ताबंदी के लिए मशहूर इस विभाग के कुछ अधिकारी अब अचानक दीपावली के सीजन में बिलों में से बाहर निकलकर बाजारों में मिठाइयां सूंघ रहे हैं। यदि अधिकारी दीपावली के सीजन मात्र में ही मिठाइयां संूघने की बजाए सालभर समय-समय पर दवाइयां सूंघते, तो दुकानदारों के पेट में दर्द नहीं होता। खैर अधिकारियों ने ही आदत डाली है। आदत ऐसी कि जब मन में आया चल पड़े शुद्ध के लिए युद्ध अभियान का बैनर लेकर मिठाइयों को सूंघने, घी को जांचने। अधिकारियों को कभी-कभार छापामारी की आदत ने मिलावटखोरियों को भी मिलावट की लत लगा दी है। लत ऐसी लगी है, जिसे छूटने में समय तो लगेगा ही। अब भी कुछ हुआ नहीं है। विभाग के अधिकारी अपनी बिगड़ी आदतों को दूर करे। हफ्ताबंदी से परहेज करे और कभी-कभार सूंघने वाली बिमारी का इलाज करवाए। यदि विभाग के अधिकारी इन सभी का त्याग करे, तो ही शुद्ध के लिए युद्ध करे। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो जैसे छापामारी के सपने से डरकर मिठाई और दवा विक्रेताओं ने प्रदर्शन किया है, आने वाले दिनों में पर्ची सट्टा करने वाले पुलिस थानों में हमें जीने दो, सट्टा लिखने दो , शराब बेचने वाले मत करो परेशान , बिजली-पानी चोरी करने वाले हम नहीं हैं बिजली-पानी चोर जैसे अनेक अवैध कारोबारी भी प्रदर्शन करते दिखाई देंगे। वैसे एक मिलावटी का कहना भी है हम मिलावट करते हैं, लेकिन लोग चाह से खाते हैं। जब वे खाते हैं, तो उनके चेहरे खिल उठते हैं। जब लोगों को ही मिलावटी सामान खाने में स्वाद आता है, तो अधिकारी क्यों फट्टे में टांग फंसा रहे हैं। रंग-बिरंगी बूंदी भगवान के चढ़ाई जाती है। इसमें भगवान को भी एतराज नहीं। बात इस मिलावटी की भी सही है, क्योंकि अधिकारियों ने मिलावटियों को मिलावट की लत लगाई और यही लत आम लोगों को स्वाद देने लगी। अ'छी जंजीर बनी हुई है, जो टूटने का नाम ही नहीं ले रही। जंजीर टूटे या न टूटे, अपनी टांग तो चली नए फट्टे की तलाश में।

रावणजी दु:खी हैं

रामलीला मैदान की उस पिच पर, जहां आम दिनों में बॉल और बल्ले के बीच युद्ध होता था, वहां पर इस बार 70 फिट ऊंचे रावण के पुतले के माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। दशहरे वाले दिन इसी जगह पर एक अग्निबाण के साथ लाखों रुपए की राशि चंद मिनटों में विषैले धुएं और कानफोड़ू आवाज में उड़ा दी जाएगी। इसी चिंता के चलते रावण की शक्ल देखकर लगा कि इस बार वह जलने से पहले अपनी भड़ास के बम जरूर फोड़़ेगा, बाकी के सिर आतिशबाजी छोड़ेंगे। पुतले बनाने वालों ने पुतले बनाए और मैदान में खड़े भी कर दिए। बॉस ने कहा अपना शाम का अखबार है और सूर्यास्त से पहले रावण स्वर्ग सिधार जाएंगे। इसलिए पहले एकाध फोटो ले आओ। लोगों को भी पता चले कि इस बार रावण कैसा होगा। बॉस के हुक्म को सिर पर रखकर मैदान में पहुंच गया। दो सैल वाले कैमरे से जैसे ही पुतले का एंगल बनाया, तभी बड़ी कड़कदार रड़क निकालने वाली आवाज आई अरे इधर-उधर कैमरा घूमाने वाले, हर बार की तरह इस बार फिर से मेरी तरफ कैमरा लेकर पहुंच गया। चल भाग। रावण के पुतले से आवाज सुनकर मैं चौंका और डरा। अभी संभलता, इससे पहले फिर वैसी ही भड़करदार आवाज आई परेशान कर रखा है तुम लोगों ने मुझे। श्रीरामचन्द्र जी ने मेरा वध किया, लेकिन तुम लोग हो कि हर साल मुझे खड़ा कर देते हो। भला मरा हुआ खड़ा हुआ है। डरते-डरते आखिरकार मैं भी बोल पड़ा रावण जी, यह तो परंपरा चली हुई है बुराई को मिटाने की। हम तो सिर्फ निभाए जा रहे हैं। इतना कहना था कि रावण जी के बाकी सिर बारी-बारी से भड़कना शुरू हो गए। पहले वाले ने मुंह खोला ये क्या परंपरा बनाई है तुमने। पहले लाखों रुपए खर्च करते हो और फिर उसे आग लगा देते हो। धुंआ ही धुंआ, शौर ही शौर, भीड़-भाड़। बस यही है परंपरा। पहले वालेे का मुंह बंद हुआ, तो दूसरे वाले का मुंह खुला बात करते हो बुराई को मिटानी की। जब थोड़ी सी बरसात होती है, तो हाई-वे में गड्ढे हो जाते हैं। तुम चुप रहते हो और ठेकेदार पैसे कूट लेते हैं। इन्हीं सड़कों की वजह से हमें (पुतलों) मैदान तक लाते-लाते कितनी तकलीफ हुई। इंजर-पिंजर (पुतलों के) ढीले हो गए हैं। एक और मुंह बोला अरे शर्म करो शर्म। हमने तो तीर-कमान, तलवारों से युद्ध लड़े, तुमने तो अपनी जेबें भरने के लिए हथियारों के फर्जी लाइसैंस ही बांट दिए। गुण्डों तक को फर्जी लाइसैंस बांट दिए। फर्जी राशन कार्ड बनाकर देश की सुरक्षा को पर संकट खड़ा कर दिया। खाकी वर्दी पहनकर अपने आप को कानून का रखवाला कहते हो, लेकिन छोटे-मोटे सटोरियों को पकड़कर ही पीठ थपथपाते हो। बाद में मोटे सटोरिए खाकी वालों की पीठ थपथपाते हैं। शाबाश खाकी वाले भाइयों। शहर में गुंडागर्दी, चोरी-चकारी और छेड़छाड़ की घटनाएं होती हैं। असामाजिक तत्व अपनी बुराइयां लेकर गली-गली घूम रहे हैं। फिर भी सोचते हो आज के दिन पुतला फूंकने से बुराइयां मिट जाएंगी? सरकारी दफ्तरों में गांधी जी की तस्वीर लटकी है, लेकिन अधिकारी अंदर की जेबों में हजार-हजार के नोट अधिक पसंद कर रहे हैं। तनख्वाह उन्हें मोटी मिलती है, लेकिन रिश्वत वे उससे भी मोटी लेते हैं। हमें जलता देख तुम खुश होते हो, लेकिन आज ही के दिन लोगों को मिलावटी मिठाइयां खिलाकर तुम डकार तक नहीं लेते। भड़ास निकालने के लिए उतावला दिख रहा एक मुंह कहां चुप रहने वाला था। सो वह भी बोल पड़ा हां हां, अपनी जेबें भरने के लिए दूसरों को नशा बेचते हो। यह नहीं सोचते कि इसी नशे से कितने घर उजड़़ेंगे। ... अरे और तो और डीटीओ कार्यालय के बारे में ही आए दिन चर्चाएं आ रही हैं। शर्म आती है, जब हमें कोई कहता है कि हमनें तो बिना गाड़ी चलाने सीखे ही लाइसैंस बनवा लिया। सिर्फ दो-तीन सौ रुपए दिए और बिना ट्रॉयल के ही लाइसैंस हासिल कर लिया। नहरों की मरम्मत का काम बाद में शुरू करते हो, लेकिन पहले अपना घर हरे नोटों से जरूर भरते हो। नहरी कहकमे वाले भाई तो मोघे छोटे-मोटे कर ही अपनी मोटी जेब में मोटी रकम भर लेते हैं। अंत में जो मुंह बोला, उसकी भी सुन लो शहर में डेंगू फैला हुआ है और प्रशासन सिर्फ रोगियों की गिनती में लगा हुआ है। लोग एक ही दिन में खून की जांच करवाते हैं, लेकिन रिपोर्टें उन्हें अलग-अलग मिल रही हैं। अस्पताल में डॉक्टर मोबाइल पर गप्पे मारते हैं और पात्र बीपीएल परिवार दवाइयों के लिए भटकते हैं। बड़े अफसर सिर्फ निरीक्षण के बाद आदेश देते हैं, लेकिन यही आदेश धूल फांकते रहते हैं। काफी समय से तो कॉलोनियां काटकर लोगों की जेबें काटने का धंधा फल-फूला है, लेकिन इसी धंधे में अफसरों ने भी अपना फायदा सोचा। रावणजी के बाकी मुंह भी अपनी भड़ास निकालते, इससे पहले रावणजी खुद ही बोल पड़े चुप हो जाओ, मत मेरा सिर खपाओ। क्यों भैंसों (लोगों) के आगे ढोल बजा रहे हो। ये तो पुतले जला सकते हैं, खुद की बुराइयां नहीं जला सकते। हममें आग निकलते देख सकते हैं, खुद रिश्वत खाना नहीं छोड़ेंगे। हमारे मरने के दिन (दशहरे) को त्यौहार के रूप में मनाएंगे, लेकिन गंदी-गंदी मिठाइयां खिलाकर खुद अपनी जेबें भर लेंगे।... नेताजी की तो बस पूछा ही नहीं, उनकी खूबियां ही बुराइयां हैं। झूठ बोल-बोलकर वोट लेते हैं, बाद में हाथ में सोट लेकर पांच साल निकाल देते हैं। शुद्ध के लिए युद्ध अभियान चलाते हो, लेकिन भगवान को रंग-बिरंगी मिलावटी बूंदी खिलाते हो। ज्योत और यज्ञ में मिलावटी घी का प्रयोग करते हो। सिर चकरा गया, शरीर पर चीटियां दौडऩे लगी रावणजी की बातें सुनकर। अभी बेहोश होता, इससे पहले रोने की आवाज फिर आई ... और बगो ये जो हमारे पेट में पटाखे भरे हैं, वे कौन से असली हैं। आधे फूटेंगे, आधे फिस्स होंगे। जो फिस्स होंगे, वे ही हमें (पुतले) बनाने वालों की जेबें भरेंगे।... अरे मुझे जलाने वालो, जिस दिन भ्रष्टïाचार, भूखमरी और महंगाई को मिटाओगे, उसी दिन मैं मरूंगा, वरना हर बार की तरह अगली बार भी इसी तरह आपके सामने आग में जलने को तैयार मिलूंगा। रावणजी की व्यथा अभी और चलती, इससे पहले ही एक व्यक्ति श्रीरामचन्द्रजी की वेशभूषा में आया। अग्निबाण छोड़ा और चिट-पिट-पटाक-धड़ूम की आवाजों के साथ रावणजी राख में तब्दील हो गए। चंद मिनट पहले जिस मैदान में हजारों लोग खड़े थे, अब इस मैदान में सिर्फ धुंआ और राख के अलावा कुछ नहीं था। बॉस का फोन घनघनाया अरे अब तो वापिस आ जा, अखबार छप भी गया है। कैमरा हाथ में लिए ऑफिस लौटा, तो बॉस का चेहरा रावण के गुस्से वाले चेहरे से काफी मिलता-जुलता दिखाई दिया। वे बोलते, इससे पहले ही मैं बोल पड़ा बॉस आज से रावणजी की फोटो छापना बंद कर दो। यह सुनकर बॉस बोला क्यों, तुम्हें मैं तनख्वाह नहीं देता। मैं बोला तनख्वाह तो देते हो, लेकिन आज रावणजी ने अपनी व्यथा सुनाई है। बड़े दु:खी हैं रावणजी। हर साल करोड़ों रुपए के पुतले जलाकर हम दशहरा मनाते हैं, लेकिन जो फुटपाथ पर जिन्दा घूम रहे हैं, उन्हें रोटी तक नहीं देते। पुतले फूंकने से निकलने वाली आवाज हमें अ'छी लगती है, लेकिन अस्पताल में सो रहे मरीज परेशान होते हैं। मेरी बात सुनकर बॉस भी खुश हुए और बोले वाह, मजा आ गया। तुमने जो रावण की व्यथा सुनाई है, उसी को फट्टे में टांग बनाकर दे। दशहरा कल है, लेकिन अपने आज ही छापेंगे। बॉस का हुक्म था, सो मैंने भी दे दी फट्टे में टांग।

फिल्म सामूहिक भोज की टिकटें

जैसा मैं जयंतीलाल, वैसी ही मेरी पत्नी विजयंतीमाला। कंजूसी की बीमारी और लालच की आदत हम दोनों में तो है ही, साथ में अक्सर छोटी-मोटी बात को लेकर बहस का दौरा भी पड़ जाता है। मैं ठहरा मोटी तोंद वाले सेठ की छोटी तनख्वाह पर नौकरी करने वाला। हुआ यूं कि फट्टे में टांग फंसाने का ही मन कर गया। दिनभर मोटी तोंद वाले सेठ की नौकरी बजाने के बाद जब शाम को घर पहुंचा, तो पत्नी पलंग पर पसरी हुई कौन बनेगा करोड़पति देखने में मग्न थी। खाना लगाने के लिए बोला, तो जवाब मिला खाना नहीं बनाया है। अपने समाज को सबसे आगे' वाला मानते हो ना, उसी आगे वाले समाज के महाराज की कल जयंति है और बड़े-बड़े सेठ सामूहिक भोज पर हमें आमंत्रित कर गए हैं। टका सा जवाब सुनकर मैं बोला तो आज खाना बनाने की क्यों हड़ताल की है? एक दिन भूखे रह जाएंगे, तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा, आसमान फट जाएगा। ... वो देखो चिन्नू, मिन्नू और टिन्नू भी सो गए हैं बिना खाना खाए। आज और कल सुबह का खाना शाम को सामूहिक भोज में ही खाएंगे। कम से कम दो समय का खाना बचेगा और एक दिन सेठों वाला खाना भी पेट को नसीब होगा। रोज-रोज मटर की दाल खाते हैं, एक समय दाल का हलुवा भी मिल जाएगा। यह कहकर पत्नी ने गुस्सा रिमोट कंट्रोल पर उतारा और टीवी बंद किया, चद्दर को ठेठ मुंह पर लपेटकर सो गई। वाह भगवान, वाह! क्या पत्नी दी है, पूरी की पूरी मक्खी चूस दी है। ऐसी पत्नी सबको देना। मन ही मन में प्रार्थना करते-करते सोने का प्रयास किया, लेकिन भूखे पेट नींद भला कैसे आने वाली थी। सोचने लगा, क्यों न अपने जैसे समाज के कुछ भाई-बंधुओं को भी सुबह सामूहिक भोज के लिए बता दूं। रोज-रोज मटर की दाल खाने वाले समाज के लोगों को एक दिन अच्छा खाना भी मिल जाएगा। महाराज की जयंति भी मन जाएगी। सोचते-सोचते जितनी देरी से नीद आई, उतनी ही जल्दी से जाग भी आ गई। सुबह नहाया, बगाों को स्कूल छोड़ा और ऑफिस के लिए रवाना होने ही वाला था कि विजयंतीमाला बोली सामूहिक भोज में जाना है ना, शाम को जल्दी आना है। मोटी तोंद वाले मोटे सेठ की नौकरी के लिए पहुंचा, तो सेठ गायब। पता चला कि वह भी सामूहिक भोज के लिए तैयारियों में लगा हुआ है। खैर रोजाना की बजाए, शाम को जल्दी ही घर के लिए रवाना हुआ। अपने आगे वाले समाज के अन्य लोगों को सामूहिक भोज में चलने की बात कहते-कहते घर पहुंचा, तो आगे विजयंतीमाला तो दरवाजे पर ही टकरा गई। मुंह लाल-लाल, गुस्स मेें नहीं, बल्कि लिपिस्टिक, भांति-भांति की क्रीम की वजह से। अजीब सी शक्ल बनाते हुए बोली जल्दी आने का बोला था, देरी से आए हो। मैं और बगो भूखे हैं, हमारी बिलकुल ही चिंता नहीं। ... कुछ देर रुकने के बाद बोली अब कपड़े-वपड़े बदलने का नाटक मत करो, देर हो रही है। जैसे हो, वैसे ही चलो सामूहिक भोज में। एक तरह से धकेलते हुए विजयंतीमाला ने दरवाजे को हरिसन कंपनी का ताला लगाया और ऐसे चल पड़ी, जैसे किसी की शादी में शगुन देने के लिए जा रही हो। अभी कुछ ही दूर पर पहुंचे थे, हमारे ही समाज वाले करीब एक दर्जन परिवारों के बुजुर्ग और उनके करीब पचास बगो भी हमें मिले और बोले चलो-चलो, देर हो रही है। सामूहिक भोज के लिए पूरी की पूरी पलटन रवाना हो गई। ... लो जी पहुंच गए सामूहिक भोज वाले द्वार पर। अरे, ये क्या? जो लोग दरवाजे से अंदर जा रहे हैं, वे दरवाजे पर खड़े कुर्ते-पायजामे वाले व्यक्ति को एक-एक कार्ड दे रहे हैं। सोचा महाराजजी की जयंती है। इसलिए ग्रीटिंग कार्ड दे रहे हैं। जैसे नए साल पर, पन्द्रह अगस्त पर, 26 जन्वरी पर कार्ड दिए जाते हैं, वैसे ही महाराज जी की जयंति भी ग्रीटिंग कार्ड दिए जा रहे हैं। भाई साहब, ये कार्ड कहां से मिलेंगी। कतार में लगे एक व्यक्ति से जब पूछा, तो बोला ये कार्ड तो दो दिन पहले पचास रुपए में बिक रहे थे, अब नहीं बिक रहे। बिना कार्ड के अंदर भी नहीं जा सकते। यदि तुम्हे कार्ड चाहिए, तो मैं सत्तर रुपए में कार्ड दे देता हूं। लो, सामूहिक भोज का कार्ड न हुआ, मुंबई के सिनेमा में लगी फिल्म रोबोट हो गई, जिसको देखने के लिए ब्लैक में टिकटें बिक रहीं हों। क्या हुआ अंदर नहीं चलना क्या,... बहुत देर हो रही है, .... भूख लग रही है.... कितनी देर और लगेगी.... कितनी सुंदर सजावट की है... पापा जल्दी चलो ना, घर जाकर पढऩा भी तो है। एक साथ छोटे-मोटे, बड़े-बुजुर्गों, महिलाओं-पुरुषों ने तो मुंझे ही घेर लिया। नहीं जा सकते। पचास-पचास रुपए के कार्ड हैं, वे ही सामूहिक भोज कर सकते हैं। भूखे पेट वालों को यह जवाब मिला, तो गुस्सा तो आना ही था। खैर जली-भुनी, तड़क-भड़क और बीच-बीच में भद्दी बातें मुझे ही सुनने को मिली। याद आया और बोला कल इसी आगे वाले समाज की सैकिंड पार्टी की ओर से भी भोज है, उसमें चलेंगे। इतना कहा, सभी ने सुना और बड़बड़ाते हुए चल दिए घर की तरफ। महाराजजी की जयंति से एक दिन पहले एक बड़े सी जगह पर लगने वाले सामूहिक भोज वाली जगह पर भी हम खाली पेट के साथ पहुंच गए। छोटे-मोटे, बड़े-बुजुर्गों और महिलाओं-पुरुषों से घिरे जब हम मुख्य द्वार पर पहुंचे, तो वहां पर भी लाइन में लगे लोगों के हाथ में कार्ड देखे। डरते-डरते पूछना ही पड़ा, तो जवाब मिला बीस रुपए का कार्ड है, बिना कार्ड अंदर नहीं जा पाओगे। अब कार्ड भी नहीं मिलेंगे। यदि तुम्हें चाहिए, तो 40 रुपए के हिसाब से मिल जाएंगे। हवाइयां उड़ गई चेहरे से, पेट पिचक गया, दिल धड़कने लगा। अगले ही पल लगा जैसे मेरे साथ कोई अनहोनी घटना होने वाली है। मेरे साथ आए आगे वाले समाज के खाले पेट वाले लोग, कहीं मेरी सेवा न कर दे। अचानक मुंह से निकला हे स'चे पातशाह, रक्षा करीं! जेब से रुमाल निकाला, सिर पर रखा और चल दिया गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह में। पीछे-पीछे आगे वाले समाज के खाली पेट लोग। सब के सिर पर रुमाल। अब कतार में बैठे थे और तसल्ली से रोटी भी खा रहे थे। सभी ने एक-एक कर हाथ धोए, मत्था टेका, तो विजयंतीमाला ने साड़ी के पल्लू में लगी गांठ को खोलकर उसमें से पांच का सिक्का निकाला और दानपात्र में डालते हुए मत्था टेका। देखते ही देखते किसी ने एक, किसी ने दो तो किसी ने दस रुपए दानपात्र में डालकर मत्था टेका और चल दिए घर को। रास्ते में बोलते भी जा रहे थे काहे का सामूहिक भोज। पचास-पचास रुपए में सामूहिक भोज होता है, तो यहां आने की भला क्या जरूरत। घर में आलू ले जाकर आलू टिक्की बनाकर खा लेते। दूध-चावल ले जाकर खीर बनाते। ... और नहीं तो होटल में ही चले जाते। इन्हीं में से एक बोला सामूहिक भोज से अ'छा तो लंगर था, जो बिना किसी ब्लैक की टिकट के सभी को उपलब्ध हुआ। अंतिम वाले वृद्ध ने जो बात कही, वह बताए बिना तो फट्टे में फंसी टांग निकल ही नहीं सकती। वह बोला हे आगे वाले समाज के महाराजजी, कुछ अक्ल की बारिश की बूंदे हमारे समाज के लोगों पर ही डाल देते, तो उनकी बुद्धि भी हरी हो जाती। साथ ही सामूहिक भोज की फिल्म ही नहीं बनती। न फिल्म बनती और न ही टिकटें छपतीं। ... अ'छा चलता हूं, आगे वाले महाराज की जय हो के नारे के साथ।

Thursday, September 23, 2010

ग्रेट सट्टा यूनियन!


यूनियन, संगठन, समिति, संघ न हो तो सभी बिखरे हुए बेरों की तरह नजर आएंगे। बिखरे नहीं रहें, तभी तो कपड़ा यूनियन, मजदूर यूनियन, किसान संघ, संघर्ष समिति जैसे अनेक समूह बने हैं। आजकल चार आदमी इकट्ठा हुए, यूनियन बनाई, प्रेस नोट जारी किर दिया। फिर उस यूनियन का तभी नाम सामने आता है जब या तो किसी की मौत होती है और या फिर कोई पर्व। ऐसी यूनियनों के पास शोक जताने, निंदा करने और बंधाई से ही फुर्सत नहीं मिलती। जब सभी यूनियन बना सकते हैं, तो सटोरियों ने किसकी भैंस खोल ली, जो वे यूनियन नहीं बना सकते। माना कि उनका काम गैर कानूनी है, लेकिन वे खाकी वाले भाइयों से परेशान भी तो हैं। खाकी वाले भाई जब चाहा, मुंह उठाया और चल दिए सटोरियों को पकडऩे के लिए वो भी दो-तीन सौ रुपए की नकदी के साथ (वो अलग बात, नकदी हजारों में हो)। पुलिस का पकडऩ-पकड़ाई का खेल महीने के अंतिम सप्ताह तक धीमा होता है, तो जरूर सटोरियों को थोड़ी-बहुत राहत मिल जाती है। सोचो यदि इनकी यूनियन बन जाए? सोचने मेें भला कौन से पैसे लगेंगे। यूनियन का नाम होगा ग्रेट सट्टा यूनियन। ग्रेट इसलिए, क्योंकि वह महान है। महान है, तभी तो आज तक पुलिस इस पर रोक नहीं लगा पाई है। यूनियन बनने का सबसे अधिक फायदा किसको होगा? सिर खुजलाने या दिमाग का मीटर घुमाने की जरूरत नहीं। फायदा खाकीवालों को होगा। उन्हें हर हफ्ते हजार, दो हजार, पांच हजार, दस हजार या लाख रुपए के लिए धक्के नहीं खाने होंगे। सौ-दो सौ रुपए के लिए भी छोटे-मोटे सटोरियों की फट्टे तक जाने की जरूरत नहीं होगी। सटोरियों की यूनियन बने, तो यह भेंट गिफ्ट हासिल करने का टंटा ही खत्म हो जाएगा। यूनियन बनने के बाद प्रधान के दरबार में खाकीवाला हाजरी बजाएगा। प्रधान दूसरे पदाधिकारी को भुगतान करने का कहेगा। वो बात अलग है कि दूसरा पदाधिकारी भुगतान के बदले में खाकी वालों से ही थोड़ी-बहुत घूस ले ले। ऐसी स्थिति में उन लोगों को जरूर खुशी होगी, जो हमेशा पुलिस पर ही घूस लेने का रोना रोते रहते थे। उन्हें खुशी होगी कि आखिर खाकीवालों को भी घूस देनी ही पड़ी। यूनियन से भुगतान हुआ, आगे खाकीवालों को भुगतान ग्रेड के अनुसार किया जाएगा। कुछ यूनियनों में सदस्यों की ओर से निर्धारित सौ-दो सौ की मंथली दी जाती है, उसी तरह ग्रेट सट्टा यूनियन के सदस्यों की मंथली फिक्स होगी और यही फिक्स मंथली खाकीवाले भाइयों को जाएगी। महीने के अंतिम दिन सट्टा लगता नहीं है, तो उसी दिन यूनियन की बैठक भी होगी। अनेक यूनियनों की बैठकों में हिसाब-किताब को लेकर हंगामा होता है, तो भला ग्रेट सट्टा यूनियन में भी हंगामा होगा। आरोप-प्रत्यारोप लगेंगे। प्रधान भांति-भांति के खर्चे दिखाएंगे। जैसे फलां खाकी वाले को इतनी भेंट चढ़ाई, फलां जागरण में इतने का चढ़ावा चढ़ाया या फलां की शादी में इतने का सामान दिलाया। प्रधान बैठक में ही बोलता- लोगों जेबें खाली करने के बाद बद्दुओं से छुटकारा पाने के लिए दान करना भी तो जरूरी था। नाराज लोग कहेंगे- शहर के अधिकांश कार्यक्रमों में जाते हो, गले में मालाएं डलवाते हो। यह सब ऐसे थोड़े ही हुआ है। हमने तुम्हें प्रधान चुना है। प्रधान का जवाब होता-आने वाले दिनों में जनता मुझे नेता भी तो चुनेगी। यूनियन बनने के बाद सटोरिए सेफ होंगे, पुलिस की जेब भी सेफ होगी और अनसेफ होगी तो सट्टा लगाने वालों की जेबें। शाम सट्टा लगाएंगे और सुबह माथा पीट लेंगे। पीटो... पीटो ... माथा पीटो। ... और कामना करो कि यूनियन ना बन जाए।

ढूंढो मौका ढूंढो


मौका मिलना चाहिए, बस झपट्टा मार लो चर्चा में आने के लिए। फिर चाहे महंगाई पर चिल्लाते हुए महंगे जूते पहनकर बाजार बंद करवा पड़े, चाहे किसे (बिना जान-पहचान वाले) के स्वर्गसिधार जाने पर आयोजित शोकसभा में भाषण देना हो, चाहे खुद किसी समय में घोटालों-भ्रष्टïाचार के आरोपों में घिरे हों, लेकिन दूसरों को घेरने के लिए भ्रष्टïाचार-भ्रष्टïाचार चिल्लाना हो। पीछे नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इसी से तो जनता के सामने जाएंगे। पिछले दिनों नगर परिषद पर भ्रष्टïाचार के आरोप लगे। भ्रष्टïाचार शब्द का उपयोग करते-करते कुछ नेता अखबारों में अपने नाम छपवाते रहे। अब वे शांत है। लगता है नगर परिषद में भ्रष्टïाचार बंद है। जो पहले भ्रष्टïाचारी थे, अब शिष्टïाचारी हो गए हैं और ईमानदारी से काम कर रहे हैं। ... नगर परिषद पर भ्रष्टïाचार के आरोप लगाकर तो टाइमपास हो गया, अब क्या करें। ... लो मिल गया एक और मौका। जब कुछ नहीं दिखाई दिया, तो पानी ही चलेगा। पानी प्यास बुझता है आदमी और धरती की व पेड़-पौधों की। ... तो यही पानी चर्चा में आने की प्यास क्यों नहीं बुझा सकता। इस जिले में तो पानी ने काफी आग भी लगाई है, जिसकी आंच में अनेक राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने गर्मी पाई और रोटियां सेकी। इस बार इन्द्रदेव ने प्रदेश पर अपनी कृपादृष्टिï बनाई रखी, तो पंजाब वाले बादल भी मेहरबान (भाजपाइयों के शब्दों में) हो चले हैं। पहले इसी पंजाब पर पानी देने में भेदभाव करने की बात होती थी, अब यही पंजाब मेहनबान होने लगा है। पानी पाकिस्तान जा रहा है, राजस्थाान को पानी नहीं मिल रहा, जैसी चिंता लगभग एक दर्जन नेताओं को भी तब हुई, जब इस बार बारिश अ'छी हुई। चिंता हुई है, तो अ'छी बात है, क्योंकि हो सकता है यही चिंता भविष्य की चिंता को दूर कर दे। मजे की बात यह है कि जो करीब एक दर्जन नेता चिंतित हैं, उनमें से कुछ नेता तो या तो विधानसभा चुनावों के दौरान चिंतित थे या लोकसभा चुनावों में। चुनाव तक ही चिंता की लकीरें थीं, चुनाव गए, चिंता की लकीरें भी मिट गई। अब फिर चिंतित हैं पानी के लिए और इसी चिंता के साथ पहुंच गए पंजाब में। महंगी ए.सी. गाडिय़ों पर सवार होकर ये नेता नहरों को नापते-नापते बादल के दरबार में पहुंचे और अपनी चिंता की पोटली खोल दी। वहां बैठे बादल मेहरबान हैं। पैसे तो हम दे देंगे, कट बंद करवा देंगे, राजस्थान के हिस्से का पानी दे देंगे जैसी बातें मेहरबानी वाली ही हैं। इतने मेहरबान तो पहले बादल राजस्थान पर कभी नहीं थे। यहां फिर एक शंका होने लगी है। मेहरबानी की वजह कहीं एक-दूसरे को नीचा दिखाना तो नहीं? ... यदि ऐसी बात है, तो यह ठीक नहीं है। राजस्थन में कांग्रेस की सरकार है, तो पंजाब में भाजपा की। कांग्रेस पहले पानी के लिए आंदोलन करती रही, अब भाजपा हाथ-पांव मार रही है। यह तो वह बात हुई पहले बल्लेबाजी करने वाली टीम बाद में बा लिंग कर रही है। पहले पांच साल तक भाजपा बैटिंग करती रही, तो कांग्रेस फिल्डिंग में थी। अब कांग्रेस के हाथ में बल्ला है, तो भाजपा फिल्डिंग में लगी हुई है। जिले में पानी को लेकर बहुचर्चित आंदोलन हुए हैं। आंदोलन के बाद नेताओं के दौरे भी हुए। स्व. भैरोसिंह शेखावत, अशोक गहलोत व वसुंधरा राजे सिंधिया भी नहरें नाप चुके हैं। स्थिति वही की वही है। बस बैटिंग-फिल्डिंग का खेल चल रहा है। पांच साल तक कोई बैटिंग करता है, तो पांच साल तक कोई बैटिंग। कुल मिलाकर भ्रष्टïाचार के खिलाफ, महंगाई के विरोध, बिजली जैसी समस्याओं के समाधान के नाम पर चर्चा में रहने के बाद पानी को चर्चा में रहने का अवसर माना। इसका फायदा भी उठा लिया। अब उन लोगों को नए मौके की तलाश में जुट जाना चाहिए, जिनके सिर्फ चर्चा में रहने की ही बीमारी है। ... मुझे तो इस तरह की बीमारी नहीं, लेकिन नए फट्टे को ढूंढने की आदत जरूर है, जिसमें टांग जो फंसानी है।

सपनों की दुकानदारी


सपने लेने के लिए अब न तो रात का इंतजार करने की जरूरत है और न ही दिन में नींद लेने की आवश्यकता। अब यहां ऐसे-ऐसे महानुभाव के पांव पड़ चुके हैं, जो आपको बिना नींद लिए ही सपनों की रंगीन दुनियां में पहुंचा देंगे। नींद लेने के दौरान अ'छा सपना आपको देखने को मिले, इसकी गारंटी तो कभी नहीं होती, लेकिन ये महानुभव हैं, जो जागते-जागते में भी आपको सपने दिखाएंगे, वो भी अ'छे फुल-फ्लेश गारंटी के साथ। इसके लिए आपको जरूर जेब ढीली करनी होगी। पसीना निचोड़कर की गई कमोई के छींटे जरूर इन महानुभावों के मारने होंगे। वो बात अलग है कि सपने आपको अ'छे दिखाएंगे, लेकिन परिणाम बुरे ही सामने आएंगे। अब आप सोच रहे होंगे कि ऐसी उल-जलूल बातें करते हुए मैंने कौन से फट्टे में और क्यों टांग फंसा दी। अपना घर, वो भी सुंदर। सुंदर पार्क के अलावा अन्य तरह की सभी सुविधाएं, जिससे मन को सुकून और परिवार को शांति मिले। ऐसा ही सपना किसी ने नींद में देखा था और इसे पूरे करने का सपना दिखाया कुछ का लोनाइजर्स ने। सपना पूरा करने की एवज में सौ, दो सौ, हजार नहीं, बल्कि लाखों बटोर लिए कुछ का लोनाइजर्स ने। सपने भी सुनो कैसे-कैसे दिखाए- सुबह जब मकान की छत पर आकर अंगड़ाई लोगे, तो सामने होगा पार्क, जिसमें लगे भांति-भांति के पेड़-पौधों, फूलों की खुश्बू से ही आपके दिन की शुरूआत होगी। नहाने वाले पानी को भी पी लेंगे, तो आपके स्वास्थ्य पर रत्तीभर का विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि पानी मिनरल वा टर से इक्कीस ही होगा। का लोनी में स्व'छ पेयजल के लिए प्लांट लगाया जाएगा। बिजली की समस्या तो सपने भी नहीं आएगी। यहां पर मिनी पा वर हाऊस लगाया जाएगा। और बात करें, सड़कों की, तो वह मलाईदार होंगी। सड़कें इतनी चौड़ी होंगी कि एक साथ बराबर में चार ट्रक निकल जाए, तो भी एक ट्रक की जगह निकलने की जगह बच ही जाएगी । पेट का पानी तक नहीं हिलेगा। लोगों की सुरक्षा के लिए चौकीदारों की व्यवस्था भी होगी। स्कूल, अस्पताल के अलावा शा पिंग मा ल भी होगा। ये देखो का लोनी का मा डल, बड़ा प्रवेश द्वार। ऐसी ही होगी का लोनी। पूरी की पूरी स्वर्ग। कुछ ही समय मेंं अ'छे-भले आदमी का दिमाग निकाल लिया का लोनाइजर्स ने। आठ-दस लाख रुपए निकाले और थमाए का लोनाइजर्स को। सपने देखने वाला भी खुश और सपने दिखाने वाला उससे भी अधिक खुश। सपने देखने वाले की खुशी पर इन दिनों गम के बादल छाए हुए हैं। जो सपने देखे थे, वे गुब्बारे की तरह फूट गए हैं। जो सपने दिखाए थे, वे सपने-सपने ही रहे। अब सुनिए सपने देखने वाले की- का लोनाइजर्स ने सुविधाएं बताते समय जाएगा, जाएगी, होगा, होगी जैसे शब्दों का अधिक उपयोग किया। यहीं मती मारी गई थी, जो इन शब्दों के चक्कर में आ गए। अब सुबह अंगड़ाई लेते हुए छत पर आते हैं, तो सामने होते हैं कचरे के ढेर और उससे उठने वाली दुर्गंध से बचने के लिए वापिस कमरे में ही चले जाते हैं। बिजली की तो पूछा हो नहीं। वह आती है और आंख मारकर चली जाती है। सड़क तो बनी नहीं, लेकिन जहां सड़क बननी थी, वह जगह चौड़ी जरूर है। बरसात के समय में कीचड़ ही कीचड़। बात सुरक्षा की करें, तो चौकीदार की बात कही थी। ... लेकिन यह चौकीदार कोई मनुष्य नहीं, बल्कि हिड़के कुत्ते (काटने वाले) का लोनी के मुख्य गेट पर मिल जाएंगे। अनजान को काटे या ना काटे, का लोनी में रहने वालों पर नजर उनकी हमेशा रहती है। जैसे-तैसे कुत्तों से बचते-बचाते आगे चलते हैं, तो घर तक पहुंचते-पहुंचते कई बार गड्ढों से गिरते-गिरते बचते हैं। नहाना तो दूर, पीने के पानी के लिए घर से दूर बने सरकारी नल की शरण में जाना होता है। कुछ दिन पहले की ही बात है, जब वाटर वक्र्स वाले अपने औजार के साथ आए और गड्ढा खोदकर पेयजल का कनेक्शन ही काट दिया। जब पूछा, तो बोला गया यह तो अवैध कनेक्शन है।... कुछ का लोनाइजर्स ने ऐसे ही सपने दिखाए हैं। पते की बात तो यह है कि सपने देखो जरूर, लेकिन खरीदो नहीं। सपने बेचने वालों से भी सावधान रहो। बाकी आपकी मर्जी।

भ्रष्टाचार का आचार


नगर परिषद में भ्रष्टाचार का बोलबाला है , सबसे अधिक निर्माण शाखा में घोटाले हुए , भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से जांच करवाओ जैसे आरोप सुन-सुनकर कान पक गए हैं और आप भी बोर हो गए होंगे। आरोप वही पुराने, लेकिन लगाने वालों में कुछ नए चेहरे हैं। कोई न कोई नया चेहरा अचानक प्रकट होता है और भ्रष्टाचार शब्द का उपयोग कर वह अफसरों-जनप्रतिनिधिसुधारक का चौला ओढऩे का प्रयास करता है। आरोप लगाने वाले नेता कहते हैं सड़कों के निर्माण में घटिया सामग्री का उपयोग हुआ, ठेकेदार और अधिकारियों ने जेबें भर ली। लो कल्लो बात। जब निर्माण हो रहा था, तो घोड़े बेचकर सोते रहे। निर्माण हुआ और वह टूट भी गई। अब गड्ढे और कंकरीट देखकर कहते हैं भ्रष्टाचार का बोलबाला है। उनसेे कोई पूछे कि भ्रष्टाचार कोई नई बात थोड़े ही है। भ्रष्टाचार तो आलू-प्याज की तरह है, जो हर सीजन में मिल जाएगा। इसके लिए उसे न तो सर्दी की जरूरत है और न ही गर्मी की। वह कहीं भी आसानी से मिल ही जाएगी। खैर नगर परिषद में हर बार की तरह इस बार फिर से भ्रष्टाचार का खेल खेला जा रहा है। आरोप लगाने वाले भ्रष्टïाचार का आचार बनाकर चाट रहे हैं और चटखारे ले रहे हैं। चटखारे के साथ ही पटाक-पटाक की आवाजें भी आ रही हैं। अनेक पार्षद बड़ी गंभीरता दिखाते हुए आरोप लगा रहे हैं, जैसे उन्हें ही सबसे अधिक चिंता है। खैर, चिंता है, तो अच्छी बात है, लेकिन इसके पीछे जो बदबू आ रही है, वह राजनीति के कचरे में लगी आग से निकलने वाले धुएं जैसी है। पहले के वर्षों पर नगर परिषद के बोर्ड पर गौर फरमाओ, तो भ्रष्टाचार जैसी कोई बात नई नजर नहीं आएगी। पिछले बोर्ड को ही ले लो। पुरानी व्यवस्था (बहुमत) की वजह से कथित खरीद-फरोख्त के बीच अविश्वास प्रस्ताव की टांग कई बार फंसी थी। अब फूटी किस्मत, जो नई व्यवस्था आ गई। जनता ने सभापति और पार्षदों को अलग-अलग चुना है। इसी व्यवस्था ने सारा गुड़-गोबर किया हुआ है। इस बार भी यदि वही पुरानी व्यवस्था होती, तो कब के खरीद-फरोख्त की मेहरबानी से अविश्वास प्रस्ताव की टांग अड़ा देते। अब टांग अड़ा तो नहीं सकते, लेकिन खीझ तो मिटा सकते हैं। भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का गीत गाते हुए जांच की मांग भी कर सकते हैं। ... अब बताओ, पहले कितने मामलों में जांच हुई और कितनों पर कार्रवाई हुई। भ्रष्टाचार पर आरोप लगाने वालों की आंखों में नगर परिषद में बैठे उनके विरोधी रड़क रहे हैं। यदि यह रड़क नहीं होती, तो वे नगर परिषद को ही क्यों निशाना साधते। भ्रष्टाचार तो सार्वजनिक निर्माण विभाग में भी होता है और सिंचाई विभाग में भी। राष्टï्रीय रोजगार ग्रामीण रोजगार गारंटी में भी भ्रष्टाचार उपस्थिति दर्ज करवाता है, तो अन्य योजनाओं में भी भ्रष्टाचार अनुपस्थित नहीं रहता। ... तो फिर आखिरकार नगर परिषद में ही भ्रष्टाचार का आचार बनाकर क्यों चटखारे लिए जा रहे हैं। यदि वास्तव में ही सुधारक हो, तो अन्य विभागों-योजनाओं की भी जांच की मांग करो। हरे-हरे नोट किसे अच्छे नहीं लगते। ... लेकिन जब हरे-हरे नोट आते दिखाई भी नहीं दे, तो खीझ मिटाने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं दिखाई देता। ऐसे खीझ मिटाने से इतना है कि वे जैसे-तैसे पांच साल निकाल लेंगे, लेकिन इन पांच सालों में वे खीझ मिटाने की बजाय अच्छा काम भी तो कर सकते हैं। भ्रष्टाचार होने के बाद ढिंढोरा पीटने की बजाय, इससे पहले ही जाग जाएं। दिखावा करने के लिए फट्टे में टांग फंसाने वाले नेताओं को चाहिए कि वह इससे दूर ही रहें।... क्योंकि फट्टे में टांग फंसाने वाले और भी तो हैं। उन्हें भी तो मौका मिले टांग फंसाने का। ... मैं तो चला नए मौके की तलाश में।

हिन्दी इज बैस्ट


कांग्रेच्यूलेशन, आज हिन्दी दिवस है। हिन्दी की पब्लिसिटी करने के लिए अनेक प्रोग्राम हो रहे हैं। स्कूलों-का लेजों में हिन्दी पर लैक्चर हो रहे हैं। लीडर हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजी में आह्वान कर रहे हैं। वे कह रहे हैं इस्ट और वैस्ट, हिन्दी इ$ज बैस्ट। फादर्स-डे, मदर्स-डे, फं्रेडशिप-डे, जैसे डे की ही तरह 14 सितंबर को देशभर में हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है। यूं कहें कि सभी डे की तरह हिन्डी-डे मनाया जा रहा है। हिन्दी दिवस पर ही फट्टे में टांग फंसाने का मन क्यों हुआ? इसके पीछे भी वजह है। सुबह-सुबह बच्चे से पूछा कि आज कितनी तारीख है, तो जवाब मिला फा र्टिन सैप्टेम्बर। हिन्दी दिवस के दिन बच्चे ने अंग्रेजी में तारीख बताई, तो हिन्दी की हालत पर बस थोड़ी-बहुत दया आ गई। बच्चा यदि कहता 14 सितंबर और हिन्दी दिवस है , तो कम से कम हिन्दी दिवस पर तो फट्टे में टांग नहीं फंसाता। खैर अब फंसा दी है, तो जब तक निकलेगी नहीं, तब तक कलम की शान लेता रहूंगा और हिन्दी की शान के लिए उसे घसीटता रहूंगा। बात हिन्दी दिवस की है, तो इसे मनाने या ना मनाने से कोई फार्क तो पडऩे वाला नहीं। मत शरमाइए, हिन्दी अपनाइए जैसे नारे लगाने वालों को भी अब शर्म महसूस होती होगी, क्योंकि इस तरह के नारे साल के 365 दिन में से एक दिन 14 सितंबर को ही लगाए जाते हैं। बाकी के 364 दिनों तक तो मत घबराइये, अंग्रेजी अपनाइये जैसी ही स्थिति रहती है। वैसे अंग्रेजी इतनी बुरी नहीं है, लेकिन वह हिन्दी के मुकाबले अधिक अच्छी भी तो नहीं कही जा सकती। फिर भी हिन्दी की बजाए अंग्रेजी इक्कीस होती जा रही है। अच्छा भला आदमी हिन्दी में बात कहता-कहता एकाध शब्द इंग्लिश में मार ही डालता है। आजकल तो फिल्मों में ही देख लो। ऐसे कई दृश्य देखने को मिल जाएंगे, जिनमें गुस्सा भी अंग्रेजी में आता है और गालियां भी अंग्रेजी में दी जा रही होती है। राह चलते किसी व्यक्ति के कोहनी लगने पर आपके मुंह से माफी चाहता हूं शब्द की बजाय दो अक्षर का शब्द सा री ही निकलता है। काम पर देरी से पहुंचे, तो वजह पूछने पर आपका जवाब ट्रैफिक अधिक था या घर में गैस्ट आए हुए थे या मदर...ब्रदर...फादर...सिस्टर की तबीयत ठीक नहीं थी होगा। खुद बेशक हिन्दी मीडियम स्कूल में पढ़े हों, लेकिन बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाना है। वह बात अलग है कि मोटी फीस देते समय आपकी जेब ढीली हो जाए। आजकल छोटे-छोटे बच्चे हिन्दी की बजाए अंग्रेजी में अधिक बात करते हैं। बच्चे जब अंग्रेजी में बात करते हैं, तो अभिभावक खुशी से फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। कभी सोचा है जब खुद स्कूल में पढ़ते थे, तो खर्चे के लिए एक-दो रुपए मांगते थे, लेकिन आज के बच्चे खर्चा मांगते हैं, तो कहते हैं फाइव, ट्वंटी, फिफ्टी या हंड्रेड रुपीज देना। बात अंग्रेजी स्कूलों की करें, तो वहां की पढ़ाई और व्यवहार देखकर हिन्दी को तो बहुत गुस्सा आ रहा है। हिन्दुस्तान में इंग्लिश मीडियम स्कूलों में हिन्दी की ऐसी अनदेखी। प्रार्थना अंग्रेजी में, छुट्टी के लिए प्रार्थना पत्र इंग्लिश में, प्रश्न-पत्र इंग्लिश में, सुलेख प्रतियोगिताएं इंग्लिश में, अध्यापक-विद्यार्थी में वार्ता इंग्लिश में। ... और तो और डांट-फटकार भी इंग्लिश में। अब तो हैरानी होती है, जब हिन्दी दिवस पर प्रोग्राम के दौरान कुछ जगहों पर भाषण भी इंग्लिश में दिए जाने लगे हैं। ऐसी स्थिति में सोचो हिन्दी को अंग्रेजी पर कितना गुस्सा आता होगा। यदि इस तरह का गुस्सा किसी आदमी को आता, तो वह बहुत कुछ सकता है। गुस्से पर काबू नहीं पा सकता, तो वह उसे पीट भी सकता है। ... लेकिन यह हिन्दी है, बस गुस्सा कर सकती है, आगे कुछ नहीं कर सकती। अनेक कार्यक्रमों में जब हिन्दी में भाषण होते हैं या प्रतियोगिताएं होती हैं, तो हिन्दी जरूर राहत महसूस करती है, लेकिन जब वह किसी के मुंह से सुनती है हिन्दी इ$ज बैस्ट तो फिर से उसका चेहरा लटक जाता है। आजकल किसी के नाम में भी इंग्लिश टांग अड़ा ही देती है। अब ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं। मेरे नाम को ही ले लो। साढ़े पांच अक्षर का अच्छा-भला नाम लेने में अनेक लोगों को तकलीफ होने लगी, तो उन्होंने इसे छोटा कर दिया है। अब कहते हैं सिर्फ जेपी । यह तो मेरा नाम हुआ, हो सकता है आपके नाम-मनमोहन सिंह को एम.पी. सिंह, राजकुमार को आर.के., रुपिन्द्र सिंह को आर.एस., सूर्य प्रकार को एस.पी., विनोद कुमार को वीके, रवि कुमार को आरके कहा जाता हो। इसी तरह जब श्रीगंगानगर लिखने की बात आती है, तो अनेक लोग लिखते हैें एसजीएनआर । जब नाम में ही इंग्लिश टांग फंसा रही है, तो हिन्दी कब तक सांस लेती रहेगी। ... इतना पढऩे के बाद आप जरूर कहेंगे फट्टे में टांग फंसाकर हिन्दी दिवस की इतनी एैसी-तैसी की है। ... लेकिन सोचो कौन हिन्दी के लिए धन-धन कर रहा है।

यह चप्पू और पप्पू


फट्टा देखा नहीं कि बस बिना रुके, बिना देखे और बिना सोचे-समझे फंसा दी टांग। खैर, अब जब टांग फंसा ही दी है, तो यह भी बताना होगा कि इसके पीछे मजबूरी क्या रही। मजबूरी भी ऐसी, की विस्तार से बताने के लिए काफी देर तक कलम की शान लेनी पड़ गई। बदले समय ने मजबूर कर दिया फट्टे में टांग फंसाने को। बदले समय के परिणाम कुछ हद तक आ भी गए हैं और आने वाले दिनों में जो परिणाम आएंगे, वह अच्छे कहे भी नहीं जा सकते। बात कान पर लगने वाले चप्पू उर्फ मोबाइल की है। मोबाइल बनाने वाले ने जितना माथा खपाई कर इसे बनाया था, उसने यह तो नहीं सोचा था कि इसके परिणाम इतने खतरनाक होंगे। उसने यह कभी नहीं सोचा होगा कि जो सुविधा दे रहा है, उसका दुरुपयोग अधिक होगा। जब कम्प्यूटर पर इंटरनेट की सुविधा ही बालमन व युव मन को गड्ढे में डालने में काफी थी, तो ऐसी क्या फांसी लगने वाली थी, जो इस सुविधा को मोबाइल में भी दे डाली। अब सुविधा दी है, तो भुगतो। बालमन-युवा मन डगमगाता, हिचकौले खाता टक्करें मार रहा है। रात्रि को कंबल-खेस में दुबके बच्चों की उंगलियां मच्छरों के काटने पर खुजली नहीं करती, बल्कि मोबाइल के बटनों (साइलेंट मोड)पर फुदकती रहती है। मोटी सी स्क्रीन पर आंखें फटी हुई हैं। सोचा यदि इनके पास मोबाइल और इंटरनेट न हो, तो ये आंखें बंद होती और वे सपनों की दुनियां में खोये होते। मोबाइल बात करने के लिए बनाया गया, लेकिन इन्होंने बात थोड़े ही करनी है। बात करने की सुविधा में इंटरनेट ने ऐसी टांग फंसाई कि बच्चे और युवा, मौका मिलते ही ऐसी-वैसी साइटें खोलनी शुरू कर देते हैं। की-पैड पर लगे बटनों से उंगलियों की छेड़छाड़ और स्क्रीन पर आए दृश्य देखकर अपने दिमाग का कचरा हो रहा है। धन्य हो ऐसीे-वैसी सेवाओं का और ऐसी-वैसी सेवाएं देने वाली कंपनियों का, जिन्होंने अपना लाभ सोचा, बाकी जाए गड्ढे में। पहले युवा छुप-छुपकर अश्लील किताबें पढ़ते या फिल्में देखते थे। अब फिल्मों की लाइब्रेरी ही उनकी जेब में है। धक्के खाने की भी जरूरत नहीं, क्योंकि उनकी जेब में है पूरा का पूरा सिनेमा। ऐसी-वैसी फिल्में इंटरनेट पर मिल जाएंगी, अश्लील कहानियां पढऩे की भी सुविधा मिली हुई है। खैर सेवाएं देने वालों ने तो दे दी, लेकिन अभिभावक अपनी समझदारी को कौन सी दुकान पर भूल आए, जो उन्हीं मिल ही नहीं रही। ऐसी क्या मजबूरी हुई कि अभिभावकों को अपने पप्पू के हाथ में खाने की टिफिन के साथ सर्वगुण-अवगुण संपन्न चप्पू दे डाला। आधी छुट्टी में यही बच्चा एक हाथ से मुह में रोटी का टुकड़ा ठूंस रहा है, तो दूसरे हाथ में मोबाइल से छेड़छाड़ कर रहा है। खाने का स्वाद का तो पता नहीं, लेकिन उसके माथे पर चिंता जरूर है। यार आज तो सर्वर ही डाउन है साथ बैठे साथी से अपनी चिंता बता रहा है। अब बताओ इसमें दोष किसका है। मोबाइल कंपनियों का या अभिभावकों का। बाजार में बिकने के लिए आ गया, उसे बिना सोचे-समझे खरीद लिया। यही बाद में परेशानी बन गया। आजकल एक वजह स्टंर्ड शब्द भी है। इसी शब्द ने समय को भी बदल दिया। अपना तो यही स्टंर्डर्ड है , स्टंडर्ड से जीते हैं और मोबाइल भी स्टंडर्ड का है। हालात ने ऐसी गुलाटी मारी है कि चाहे स्कूल में पढ़ाने वाला अध्यापक कितना ही अच्छा हो, पढ़ाई कितनी ही अच्छी क्वालिटी की हो, लेकिन बच्चे को बड़ी स्क्रीन, एमपी-3, एमपी-4, वीडियो, ब्लू-टु्रथ, मैमोरी कार्ड और इंटरनेट की सुविधा वाला चप्पू जरूर चाहिए। .... जैसे जब ये सुविधाएं नहीं थी, तो तब स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती होगी, लोग अनपढ़ ही रह जाते थे और अनपढ़ ही सरकारी नौकरियां हथिया लेते थे। अब ये सुविधाएं नहीं मिलेगी, तो बच्चे पढ़ नहीं पाएंगे। बच्चों की डिमांड है, सो अभिभावक पूरी भी कर रहे हैं। इसी तरह की डिमांड पूरी करने के बाद स्कूल की मासिक फीस इतनी नहीं आ रही, जितनी इंटरनेट और मोबाइल का ल्स का बिल अभिभावकों के हाथों में आ रहा है। अब यदि अभिभावक अपने बच्चों से पूछे कि इतना बिल कैसे आया, तो जवाब मिलेगा अब ढंग से पढ़ाई भी नहीं करने दे रहे। इंटरनेट पर ऐसे-ऐसे विद्वानों के विचार ढूंढेंगे, तो बिल तो आएगा ही। ये विद्वान कोई नहीं, बल्कि वैबसाइटें हैं। ऐसे विद्वानों की संख्या कम नहीं, हजारों में हैं। एक क्लिक के साथ ही विद्वानों के गंदे विचारों के साथ स्क्रीन पर आ जाएंगे। इसे विद्वानों से बचना होगा। इससे पहले अभिभावकों और बड़ों को भी अपनी गुम हुई समझदारी को ढूंढना होगा। अपने पप्पू को चप्पू जरूर दिलाओ, लेकिन सर्वगुण संपन्न के साथ, अवगुण के साथ नहीं। यदि सावधानी नही बरतीं, तो चप्पू की वजह से पप्पू फेल हो जाएगा। फेल करवाना है, या पास, यह जिम्मेदारी आपकी, लेकिन मैं तो चला नया फट्टा ढूंढने के लिए।

महिमा है इनकी अपरंपार


टैम्पो वाले भाइयों महिमा अपरंपार है। यात्री बैठता कहां से है, जाना कहां होता है और पहुंचा कहां दिया जाता है। दाद देनी होगी लालची टैम्पो चालकों की। हुआ यूं कि जब घूमघामके कोडा चौक पर पहुंचा, तो परेशान दिख रही एक वृद्धा ने टैपो को देखा। रुकनेभर का ही इशारा किया था वृद्धा ने। इशारा होते ही टैम्पो चालक ने ऐसा कट मारा कि पीछे वाला वाहन चालक दुर्घटनाग्रस्त होते-होते बच गया। टैम्पो रुका, महिला बोली सरकारी अस्पताल जाना है। इतना सुनना था कि टैम्पो चालक ने बैठने का इशारा किया और दौड़ा दिया टैम्पो। अभी टैम्पो कुछ ही दूर पहुंचा था कि एक और इशारा पाकर टैम्पो ने फिर पुराने स्टाइल वाला कट मार दिया। इशारा करने वाले ने रेलवे स्टेशन पहुंचाने की बात कही। बैठ जाओ टैम्पो चालक की मुंह से यह निकला, तो परेशान महिला ने इसमें एतराज जताते हुए कहा अस्पताल में मरीज भर्ती है, जल्दी पहुंचना है। जल्दी ही पहुंचाउंगा, बस रेलवे स्टेशन में कितना समय लगता है। टैम्पो रेलवे स्टेशन होते हुए जैसे ही बीरबल चौक पहुंचा, तो एक और सवारी अग्रसेन चौक के लिए चढ़ गई। महिला ने माथे का पसीना पोंछा। मरीज को लेकर चिंतित वृद्धा ने फिर से टैम्पो चालक को जल्दी अस्पताल पहुंचाने के लिए कहा, लेकिन पहले वाला जवाब जल्दी ही पहुंचाउंगा दिया। अग्रसेन चौक पर टैम्पो पहुंचा। महिला ने राहत की सांस ली और सोचा अब तो अस्पताल पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा। महिला सोच ही रही थी कि तीन व्यक्ति टैम्पो चालक के नजदीक पहुुंचते हैं। कहते हैं बालाजी धाम जाना है। टैम्पो वाले का वही सदाबहार जवाब बैठ जाओ। इतने में ही महिला के मोबाइल पर घंटी बजी। मोबाइल अटैंड किया, तो महिला की चिंता और बढ़ गई। बात सुनकर महिला बोली भइया मरीज को खून चढ़ाना है पहले अस्पताल चलो। ... लेकिन टैम्पो चालक है कि उसने तो जैसे सारे शहर के लोगों को गंतव्य तक पहुंचाने का ठेका ले लिया हो। बेशक गंतव्य पहुंचने के लिए यात्री को कितनी ही परेशानी का सामना करना पड़े, उससे टैम्पो चालक को कोई लेना-देना नहीं। बालाजीधाम पहुंचने के बाद इतना तो तय था कि टैम्पो के पहिए अस्पताल पहुंचकर ही रुकेंगे। फूटी किस्मत महिला और मरीज की, जो टैम्पो शिव चौक पहुंचा। अस्पताल की तरफ मुडऩे से पहले ही टैम्पो चालक ने अपने चिर-परिचित अंदाज में बे्रक पर रख ही दिया। पांच युवक आए। वे भी परेशान। चालक से बोले कृष्णा टाकीज जाना है। फिल्म शुरू होने में मात्र पांच मिनट ही रह गए हैं। जल्दी पहुंचा दो। पांच युवकों ने चंद सैकिंडों में कही इस बात से महिला का सिर भन्ना उठा, तो टैम्पो चालक का चेहरा भी खिल उठा। बड़ी ही विनम्रता टैम्पो चालक में देखने को मिली। बोला बहनजी, टैम्पो दूसरा कर लो, टैम्पो अस्पताल नहीं जाएगा। माथे पर चिंता, चेहरे पर गुस्सा, लेकिन महिला चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती। बिना कुछ बोले टैम्पो से नीचे उतर गई और टैम्पो चालक कृष्णा टाकीज की तरफ रवाना हो गया। यह किस्सा पढऩे के बाद आपको भी लगेगा कि टैम्पो वालों की महिमा अपरंपार है। एक मरीज को खून चाहिए, लेकिन टैम्पो चालक को रुपए का लालच है। पांच युवकों को फिल्म देखनी है। मरीज की हालत को दरकिनार कर टैम्पो चालक ने पांच युवकों की अधिक चिंता हुई, जिन्होंने फिल्म देखनी है। महिमा तो टैम्पो वालों की अपरंपार है, लेकिन यह अच्छी नहीं है। खैर यह तो एक महिला थी वो भी वृद्ध। यदि अभी भी टैम्पो वाले यही महिमा अपनाते रहे और उनका सामना किसी खड़ूस से हो गया, तो यह मत कहना हमें तो कोई अस्पताल छोड़कर आओ। जिसे जहां जाना हो, उसे पहले पहुंचाओ। सलाह दी है। मानो तो ठीक, ना मानो तो आपकी मनमर्जी। मैं तो चला गंगासिंह चौक। कल फिर मिलेंगे, नए फट्टे में टांग फंसाकर।

सेवा का एक नाम: गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह शहीद

संभाग भर में सैंकड़ों की संख्या में सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और व्यापारिक संगठनों के बीच गंगानगर जिला मुख्यालय पर पदमपुर मार्ग पर स्थित गुरूद्वारा धन धन बाबा दीप सिंह ने पिछले लम्बे समय से अपनी अलग पहचान बनाई हुई है, तो इसके पीछे नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने वालों की एक टीम है। समय-समय पर जरूरतमंदों की सेवा करने वाली इस टीम का कहना है यदि व्यक्ति कोई काम करता है, तो उसके पीछे वह कोई न कोई लाभ जरूर सोचता है, लेकिन नि:स्वार्थ भाव से काम करने का एक अलग ही मजा है। यूं कहें कि नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने से ही दिल को सुकून मिलता है। लगभग दो दशक से गुरूद्वारा की इस टीम द्वारा सिख ही नहीं, बल्कि हर वर्ग की सेवा की जा रही है। सिख समुदाय के पर्वों के अलावा होली, दीपावली, दशहरा, लोहड़ी आदि पर्वों के दौरान होने वाले शहर में कार्यक्रमों के दौरान गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह के सेवादार किसी ने किसी रूप में अपने सेवाएं देते नजर जाते हैं। कभी जूते-चप्पलों की सेवा, तो कभी पानी अथवा लंगर की। भारत-पाक सीमा पर सेना तैनाती के दौरान जब हालात लड़ाई वाले बने थे, तो इसी गुरूद्वारा के सेवादार भारत-पाक सीमा तक पहुंचे और वहां सैनिकों और ग्रामीणों को लंगर उपलब्ध कराया। इतना ही नहीं, जब स्थिति सामान्य हुई और किसान अपने नुकसान की भरपाई के लिए आंदोलन पर उतारू हुए, तो उनके लिए भी कलक्टरी के बाहर काफी दिनों तक लंगर की व्यवस्था गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह ने करवाई। अन्य संगठन बेशक अपने पांव पीछे हटा लें, लेकिन गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह के सेवादार कदम हटाने की बजाए, चार कदम आगे ही रखते हैं, जिसके परिणाम भी सराहनीय रहे हैं। समय-समय पर जरूरतमंद परिवारों के बच्चों की शादियां करवाने के अलावा सिख समागम भी इसी संस्था द्वारा करवाए जाते हैं। संस्था द्वारा करवाए जाने वाले कार्यों का यदि विस्तार से उल्लेख किया जाए, तो स्थान बहुत कम पड़ जाएगा। फिर भी ऐसे कुछ कार्यों का उल्लेख किया जाना जरूरी भी है, क्योंकि इनके उल्लेख से संभवत: अन्य संस्थाओं को जरूर प्रेरणा मिलेगी।
बात संभाग के अन्य क्षेत्रों की बजाय गंगानगर जिला मुख्यालय की करें, तो यहां पर विभिन्न धर्मों से जुड़े अनेक संगठन, समाजसेवी संस्थाओं के अलावा व्यापारिक तथा राजनीतिक संगठन भी सक्रिय हैं। इन संस्थाओं द्वारा समय-समय पर समाजसेवा के क्षेत्र में कार्य किए जाते रहे हैं, जिनके बारे में समाचार पत्रों में आपने पढ़ा तो होगा ही। इन्हीं संगठनों में से अनेक संगठन ऐसे भी हैं, जो समाजसेवा में सक्रियता के नाम पर सिवाय अपना नाम चमकाने के अलावा कुछ नहीं करते। ऐसे संगठनों का असली चेहरा करीब पांच साल पहले सामने भी आ गया था। यह जानकार आपको हैरानी जरूर होगी कि जो संगठन समाजसेवा के नाम पर अपने आप को सेवक कहते हैं, वे ही संगठन किसी की भूख मिटाने के लिए अपने कदम पीछे कर लेते हैं। बात करीब पांच साल पहले की है। राज्य सरकार ने जरूरतमंद लोगों को कम राशि में भरपेट खाना खिलाने की योजना शुरू की थी, तो हर वर्ग ने इसकी सराहना की थी। योजना के मुताबिक हर सदस्य को मात्र दो रुपए में भरपेट भोजन करवाया जाना था। दो रुपए एक सदस्य देता, जबकि दो रुपए राज्य सरकार अपने स्तर पर वहन करती। इस योजना की जहां सराहना की जा रही थी, तो दूसरी तरफ अनेक लोग हैरान भी थे कि आखिर महंगाई के इस दौर में मात्र चार रुपए में भरपेट भोजन कैसे उपलब्ध करवाया जा सकेगा। खैर तत्कालीन जिला कलक्टर कुंजीलाल मीणा की मौजूदगी में यह योजना शुरू हुई, तो इसमें मीडियाकर्मियों के साथ-साथ क्षेत्र के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक व व्यापारिक संगठनों से जुड़े प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया। योजना शुरू हुई, तो उम्मीद थी कि यह चलेगी। अफसोस, अन्य योजनाओं की तरह इसका भी हाल बहुत बुरा हुआ। नतीजन वह बंद होने के कगार पर पहुंच गई। जब यह योजना बंद होने के कगार पर थी, तो योजना से जुड़े अधिकारियों ने जिले के धार्मिक, सामाजिक आदि संगठनों के पदाधिकारियों से मुलाकात कर सहयोग का आग्रह किया, लेकिन योजना में दिलचस्पी दिखाने की बजाए संगठनों ने अपने कदम पीछे खींच लिए। बात किसी की भूख मिटाने की थी, तो गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह के सेवादारों ने अपने कदम आगे बढ़ाए। गुरूद्वारा के प्रमुख सेवादार तेजेपालसिंह टिम्मा कहते हैं सिख समाज की तो परंपरा रही है लंगर। सदियों से यह परंपरा चली आ रही है। इसी परंपरा के चलते वे किसी को भूखा नहीं देखना चाहते। गुरूद्वारा ने इस योजना में भागीदारी निभा दी। गुरूद्वारा ने तो जो दो रुपए आम जनता से खाने के बदले में लेने थे, वे लेने भी बंद कर दिए और नि:शुल्क भोजन उपलब्ध करवाना शुरू कर दिया, जो अभी तक जारी है और भविष्य में भी नि:शुल्क भोजन उपलब्ध करवाया जाएगा। तब अन्य संगठन सोचने को मजबूर हो गए कि आखिरकार गुरूद्वारा कैसे इस योजना पर काम करेगा। इसी सोच का जवाब सेवादारों ने कुछ इस तरह से दिया गुरू की कृपा से योजना चलेगी। राज्य सरकार ने करीब दो वर्ष तक तो योजना के मुताबिक अपने स्तर पर दो रुपए प्रति सदस्य के हिसाब से वहन किए, लेकिन बाद में इसे भी किसी कारणवश बंद कर दिया। राज्य सरकार ने हाथ पीछे कर लिए, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हो सकता कि गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह भी पीछे हट जाए। टिम्मा कहते हैं सरकार ने दो रुपए देने में भी कंजूसी दिखा दी, लेकिन वे अपने स्तर पर लोगों को भरपेट भोजन उपलब्ध करवाएंगे। तब से आज तक जरूरतमंदों को भरपेट भोजन उपलब्ध प्रतिदिन करवाया जा रहा है। हैरानी तब होती है, जब छोटे-मोटे समाजसेवी कार्यों का उल्लेख तो मीडिया द्वारा किया जाता रहा है, लेकिन भूख मिटाने जैसे अहम कार्य को नजरंदाज कर दिया गया। गुरूद्वारा के सेवादारों के मुताबिक रोजाना शाम को जिला मुख्यालय पर राजकीय चिकित्सालय में एक जिप्सी जाती है, जिसमें सवार होते हैं सेवादार। दाल और परसादा (रोटियां) लेकर जब ये सेवादार अस्पताल परिसर में दाखिल होते हैं, तो वहां मौजूद मरीज व उनके परिजन उनके इस कार्यों की न केवल सराहना करते हैं, बल्कि उन्हें आशीर्वाद भी देते हैं। रोजाना 400 से 450 लोगों को भरपेट भोजन उपलब्ध करवाया जाता है। इतने लोगों के भोजन की व्यवस्था पर खर्च कितना होता है के सवाल पर गुरूद्वारा के सेवादार कहते हैं सेवा करते हैं, हिसाब नहीं रखते। खर्चा जो भी होता है, गुरू की कृपा से वहन किया जाता है। यदि इसी तरह से गुरू की कृपा बनी रही, तो उनके प्रयास रहेंगे कि शहर की झुग्गी झोंपडिय़ों, कच्ची बस्तियों आदि क्षेत्रों में भी भोजन उपलब्ध कराया जाएगा। गुरू की कृपा से गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह शहीदां के सेवादार इस पुनीत कार्य को बखूबी पूरा कर रहे हैं। ऐसे अनेक कार्य हैं, जिनसे अन्य संगठनों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए।
अक्सर अनेक जरूरतमंद परिवारों के सामने अपने बच्चों की शादी को लेकर चिंता रहती है। इसी चिंता को मिटाने के लिए भी बाबा दीप सिंह की टीम आगे आई। हर वर्ष जरूरतमंद परिवारों के बच्चों की शादी इसी संस्था द्वारा नि:शुल्क करवाई जा रही है। मुख्य सेवादार तेजेन्द्रपाल सिंह टिम्मा के मुताबिक करीब दो दशकों से गुरूद्वारा द्वारा हर वर्ष सामूहिक विवाह समारोह का आयोजन किया जा रहा है। समारोह के दौरान बारात के स्वागत से लेकर उनके खान-पान की व्यवस्था करना ही नहीं, बल्कि उपहार स्वरूप ससुराल पक्ष को घरेलू जरूरतमंद का सामान भी नि:शुल्क उपलब्ध करवाया जाता है। अब तक कितनी शादियां करवाई जा चुकी हैं के सवाल पर टिम्मा कुछ सोचते हैं और कहते हैं याद नहीं, कभी गिनी ही नहीं। साथ ही वे बताते हैं जरूरतंद परिवारों के लिए कोई सीमा नहीं है। चाहे वे राजस्थान के हों या पंजाब अथवा हरियाणा के। अन्य राज्यों के भी जरूतमंद परिवारों के बच्चों की शादियों में गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह शहीदां हर तरह से सहयोग करता है। हिन्दू समाज के बच्चों की शादी हिन्दू रीति-रिवाज से और सिख समाज के बच्चों की विवाह आनंद कारज से करवाया जाता है। हालांकि अभी तक मुस्लिम परिवार के बच्चे शादी के लिए नहीं आए, लेकिन यदि वे भी आते हैं, तो मुस्लिम रीति-रिवाज से उनका भी विवाह करवाया जाएगा। यह तो थी सामूहिक विवाह समारोह की बात, लेकिन इसी दौरान किसी भी परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर हो और वह अपने बच्चों का विवाह करवाना चाहता हो, को भी गुरूद्वारा हर तरह से सहयोग करता है। सेवा, सहयोग और अन्याय के विरुद्ध लड़ाई लडऩे में हमेशा आगे रहने वाले गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह के ऐसे ही प्रयासों की बदौलत हर वर्ग को लाभ मिल रहा है। ऐसे प्रयासों के लिए गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह शहीदां की जय हो ।
और बना दिया इतिहास: गंगानगर में इतिहास बना! हैरानी जरूर हुई होगी। कम से कम गंगानगर में तो यह इतिहास गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह शहीदां ने बना ही डाला। अक्सर किसी की मृत्यु होने के बाद शव की सार-संभाल के लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। चूंकि यह शव की सार-संभाल का मामला था, तो कोई भी संगठन इसके लिए आगे आने की सोच भी नहीं रहा था। ऐसे में गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह ने इसमें रुचि दिखाई। विगत दिनों डिपफ्रिज की व्यवस्था गंगानगर जिले में की गई, तो लोग हैरान तब हुए, जब उन्हें पता चला कि यह व्यवस्था सरकार ने नहीं, बल्कि गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह शहीदां के सेवादारों ने अपने स्तर पर करवाई है। टिम्मा ने बताया कि डिपफ्रिज की लागत काफी अधिक है, वहीं इसके उपयोग के दौरान भी खर्चा अधिक रहता है। फिर भी गुरूद्वारा ने यह व्यवस्था नि:शुल्क उपलब्ध करवा रखी है। इसके तहत चौबीस घण्टे यह सेवा शुरू रहती है। शव लाने, ले जाने और उसके रख-रखाव की जिम्मेदारी गुरूद्वारा के सेवादार निभा रहे हैं। उन्होंने बताया कि बेशक शव लावारिस हो, लेकिन सार-संभाल के लिए वे हाजिर हैं। वर्तमान में गुरूद्वारा में 6 डिपफ्रिज हैं और यदि जरूरत पड़ी तो इनकी संख्या में और भी वृद्धि कर दी जाएगी।
सेवाभावी टीम: पदमपुर रोड स्थित गुरूद्वारा धन धन बाबा दीप सिंह शहीदां में एक ऐसी टीम है, जिनके सदस्य समय-समय पर सेवा के क्षेत्र में आगे रहते हैं। इसी टीम में शामिल हैं गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह के मुख्य सेवादार तेजेन्द्रपाल सिंह टिम्मा, सतनाम सिंह लाडा, जोगेन्द्र सिंह भाटिया, हरप्रीत सिंह, जीतेन्द्र सिंह, मनजीत सिंह, हरमिन्दर सिंह कोचर, कुलविंदर कोहली, कंवलजीत सिंह व बलकरण सिंह सरपाल। टीम का कहना है जो भी कार्य करते हैं, मिलजुलकर करते हैं। इसके लिए गुरू की कृपा से पूरी संगत का भी पूरा सहयोग मिलता रहता है।
सेवा की सराहना: किसी भी क्षेत्र में यदि कोई उत्कृष्ट कार्य करता है, तो उसकी सराहना की जानी चाहिए। सराहना की वजह से उसका हौंसला बढ़ेगा। गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह शहीदां के प्रयासों की सराहना करने में अनेक दिग्गजों ने किसी तरह की कंजूसी नहीं बरती, तो इसका परिणाम है कि गुरूद्वारा के सेवादारों के हौंसले लगातार बुलंद होते जा रहे हैं। जरूरतमंद परिवारों के बच्चों का विवाह, भूखे को भोजन, अन्याय के विरुद्ध लडऩे जैसे कार्यों के लिए जहां समय-समय पर स्थानीय विधायक, सांसद, सभापति तथा अन्य जनप्रतिनिधियों के अलावा अनेक संगठनों के लोग सराहना करते रहे हैं, वहीं तत्कालीन उपराष्ट्रपति स्व. भैरो सिंह शेखावत भी गुरूद्वारा की मुक्तकंठ से सराहना कर चुके हैं। इतना ही नहीं पूर्व गृहमंत्री बूटा सिंह तो जब भी गंगानगर आते हैं, गुरूद्वारा में उपस्थिति दर्ज करवाए बिना वापिस लौटते ही नहीं। विगत दिनों सामूहिक विवाह आयोजन का पता चलने पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पत्र लिखकर गुरूद्वारा के इस कार्य की सराहना की।
बच गया शहर: कुछ वर्ष पूर्व जब तत्कालीन अशोक गहलोत सरकार ने प्रदेश में अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया था, तो अन्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की तरह गंगानगर के लोगों में भी भय व्याप्त हो गया था। अनेक लोग तो अपने हाथों से अपने खून-पसीने की कमाई से बने मकानों और दुकानों को तोडऩे में लग गए। कुछ धार्मिक संस्थाओं ने भी अतिक्रमण तोडऩे शुरू कर दिए। चूंकि गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह शहीदां में लोगों की श्रद्धा है, तो इसको बचाने में भी संगतों ने मोर्चा संभाल लिया। पदमपुर रोड पर गुरूद्वारा के आगे हजारों की संख्या में जब संगत पहुंची और मोर्चा संभाला, तो पुलिस-प्रशासन ही नहीं, बल्कि सरकार को भी अपने कदम पीछे हटाने पड़े। नतीजन अतिक्रमण हटाने वाला अमला वापिस लौट गया और शहर के अनेक लोगों के मकान-संस्थान भी टूटने से बच गए। गुरूद्वारा की संगतों द्वारा किए गए आंदोलन का ही परिणाम था कि लोग आज भी अपने घरों-संस्थानों में सुरक्षित हैं।