Tuesday, October 19, 2010

डेंगू नहीं हम गुंडे हैं

कसम फट्टे की, दावे के साथ कह सकता हूं कि इस बार डेंगू के गुंडे (म'छर) स्वर्गलोक में लोगों को पहुंचाने के लिए अधिकारियों से सैटिंग कर ही गंगानगर में घुसे हैं। तभी तो रोजाना ही मुझे मेरा कोई न कोई जानकार कहता मिल ही जाता है यार आज फिर प्लेटलेट्स कम हो गई। दाद देनी होगी डेंगू के गुंडो की, जो बिना डरे, सीना चौड़ा किए हुए गुंडागर्दी कर रहे हैं। डंक पर डंक मारकर अच्छे-भले आदमी को अस्पताल से स्वर्ग का रास्ता दिखाते जा रहे हैं।... और मेरे जैसे लोग फट्टे में टांग फंसाकर अधिकारियों से यह पूछने की गलती कर बैठते हैं साहब डेंगू के कितने रोगी सामने आए हैं? क्या उपाय किए जा रहे हैं? जवाब मिलता है कल तक नब्बे थे, आज सौ रोगी सामने आए हैं। फिर भी स्थिति नियंत्रण में है। अधिकारियों का जवाब सुनकर तो ऐसे लगता है जैसे सचिन तेंदुलकर द्वारा शतक मारने के बाद पूर्व कोच ग्रेग चैप्पल प्रशंसा कर रहे हों। मुझे तो सोचकर ही डर लगता है कि इस सार डेंगू के गुंडे गुंडागर्दी कर रहे हैं, तो अगले वर्ष क्या करेंगे। लो डेंगू के गुंडों की गुुंडागर्दी से पीडि़तों को मेरी तरफ से बधाई हो। क्योंकि कइयों के स्वर्ग सिधार जाने और दर्जनों के अस्पताल में पहुंच जाने के बाद आखिरकार लंबी तानकर सोने वाले पार्षदों और अधिकारियों की आंखें खुल ही गई। तभी तो कल नगर परिषद में बैठक हुई। बैठक क्या हुई, कसम फट्टे की भड़ास निकालने और बदले में सफाई देने तथा आश्वासनों का पिटारा खोलने की ही प्रतियोगिता हुई। काफी देर तक चली इस प्रतियोगिता में एक पार्षद ने ऐसे भड़ास निकाली, जैसे बैठक में ही डेंगू के म'छर ने पूरा मूड बनाकर उसे डंक मारा हो डेंगू बुखार की पहचान करने के लिए जिला चिकित्सालय में सीबीसी मशीन ही पिछले तीन माह से खराब पड़ी है। पार्षद की इस बात पर बेशर्मी हंसी भी आती है और गुस्सा भी। हंसी उनकी याददाश्त को लेकर आती है, जो तीन माह बाद सीबीसी मशीन खराब है के साथ वापिस आई। गुस्सा इसलिए आता है कि तीन माह के दौरान कई लोग स्वर्ग सिधार गए और दर्जनों लोग अस्पताल में इलाज करवाने पहुंचे। कोई गंगानगर में डा क्टरों के चढ़ावा चढ़ा रहा है, तो कोई लुधियाना, हिसार या चण्डीगढ़ अथवा जयपुर में मोटी रकम निजी चिकित्सालयों के दरबार में भेंट चढ़ा रहा है। लो अब चिकित्सा अधिकारी की भी सुन लो चिकित्सालय में रोगियों की बढ़ती संख्या के हिसाब से बेड और वार्ड कम पड़ गए हैं। वाह जी वाह, मजा आ गया कसम से। शहर में डेंगू के रोगी बढ़ रहे हैं, उसकी चिंता नहीं। चिंता है तो सिर्फ बैड और वार्ड की। मेरी तो सरकार से एड़ी से लेकर चोटी तक प्रार्थना है कि वह डेंगू को बेशक न भगाए, लेकिन वार्ड और बैडों की संख्या जरूर बढ़ाएं। तांकि डेंगू के गुंडों से प्रताडि़त होकर कोई अस्पताल में पहुंचे, तो उसे इलाज नहीं, बल्कि बैड जरूर मिल जाए। चिकित्सा अधिकारी की इस तरह की बातों से डेंगू के गुंडे जरूर खुश होते जा रहे हैं। भला खुशी क्यों न होगी। डेंगू के गुंडों को मारने की बजाय चिंता बैड और वार्डों की हो रही है। गंदे पानी के गड्ढों को डेंगू के गुंडों स्वीमिंग पूल और नालियों को नहर। गंदगी के ढेरों को वे किसी हिल स्टेशन की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। रात को सो रहे लोगों को डंक मार-मारकर उनका खून चूस रहे हैं ये गुंडे। ... ऐसे ही अनेक गुुंडे कइयों को अस्पताल और स्वर्गलोक तक पहुंचाने के बाद चिंतित दिखाई देने लगे हैं। ऐसे डेंगू वाले गुंडों की अपने-अपने इलाके में स्थित गंदगी के ढेरों में बैठकें हुईं। चिंतित डेंगू वाले गुंडों के नेता बोले अरे सभी भाईलोग गंगानगर में ही लोगों का खून चूसते रहे, तो खून की इतनी कमी आ जाएगी कि बाद में एक-एक मच्छर को एक-एक बूंद के लिए तरसना होगा। अरे गंगानगर के अलावा कहीं और भी तो जाओ। सभी के सभी कभी सेतिया का लोनी, तो कभी पुरानी आबादी या जवाहरनगर अथवा ब्ला क एरिया में ही लोगों का खून चूसे जा रहे हो। पगाीस-तीस किलोमीटर ही तो है पड़ौसी पाकिस्तान। इसलिए अ'छा है आधे पाकिस्तान में जाकर वहां के लोगों पर अपनी गुंडागर्दी का रौब दिखाओ। डेंगू वाले गुंडों की अ'छी-खासी बैठक में सराहनीय निर्णय यह लिया गया कि आधे डेंगू वाले गुुंडे पाकिस्तान जाएंगे।... लेकिन इस निर्णय की जानकारी गंगानगर नगर परिषद को मिल गई। तभी तो एक और बैठक आज भी बुला ली गई। अब बोलो कल सोमवार को बैठक के रूप में भड़ास निकालने, सफाई देने और आश्वासनों की प्रतियोगिता हुई थी और आज की बैठक में खून इकट्ठा करने के लिए फौज बनाने पर विचार। किसी जरूरतमंद डेंगू पीडि़त को खून की जरूरत हो, तो उसे तुरंत खून उपलब्ध हो जाए। यही उद्देश्य रहा आज ही की बैठक में। काफी दिनों से डेंगू की गुंडागर्दी की वजह से प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की कई बैठकें हो चुकी हैं, लेकिन बैठकों में सिवाय चर्चाओं के अलावा कुछ नहीं हुआ। छुटपुट प्रयास ही हुए। प्रयास भी ऐसे, जैसे दशहरे वाले दिन रामलीला मैदान में सत्तर फिट के विशालकाय रावण के पुतले में छुटपुट पटाखे फूटे हों। बाकी सारे के सारे फिस्से हुए हों। चलो डेंगू वाले गुंडों को भी मेरी तरफ से बधाई। उन्हें अब खून चूसने के लिए पाकिस्तान जाने की जरूरत नहीं, बल्कि उन्हें गंगानगर में ही खून मिल जाएगा। एक फौज तैयार हो रही है, जो जरूरतमंदों को खून तुरंत उपलब्ध करवाएगी। यही खून डेंगू वाले गुंडों का पेट भरेगी। मेरी बधाई सुनने के बाद डेंगू वाले गुंडे ऐसे नारे डेंगू नहीं हम गुंडे हैं, डेंगू नहीं हम गुंडे हैं.... लगाने लगे, जैसे कारगिल युद्ध में वीर जवानों ने नहीं बल्कि उन्हीं ने झण्डा फहराया हो। ... और मैं चला फट्टे महाराज की जय हो... जय हो... के जायकारे के साथ नए फट्टे की तलाश में।

Saturday, October 16, 2010

शुद्ध-अशुद्ध और युद्ध

लोगों को मिलावटी सामान देकर खुद की पांचों उंगलियां शुद्ध देसी घी में सुरक्षित रखने वाले कुछ लोगोंं को रात को ही नहीं, बल्कि दिन में भी छापामारी के सपने आ रहे हैं। ऐसे सपने जो अपने भी नहीं लगते। आमतौर पर शुद्ध के लिए युद्ध अभियान वाले विभाग पर हफ्ताबंदी जैसी बातें आम होती रहती हैं, अब वही विभाग दीपावली के सीजन में मिलावट करने वाले कुछ लोगों की उंगलियों पर चिपके घी को पिघलाने का मन बनाया है, तो इसका विरोध तो होना ही था। दीपावली के सीजन में अ'छी-खासी की लक्ष्मी की उम्मीद पर गुरूनानक बस्ती गड्ढे वाला पानी फिरे, यह सहन कैसे हो सकता है। उधर, दवाइयां बेचने वाले भी खफा हो गए हैं। कुछ दवा विक्रेताओं को दुकानों के निरीक्षण की कार्रवाई से काफी एलर्जी है। ऐसी एलर्जी कि यदि कोई निरीक्षण करे, तो खुजली होने लगती है। खुजली इतनी होती है बिना विरोध-प्रदर्शन के मिटती ही नहीं। ऐसी ही खुजली मिटाने के लिए सोमवार को कलक्ट्रेट पर पहुंचे कुछ दवा वाले भाईलोग। कमाल की बात है, दूसरों की खुजली मिटाने के लिए दवाई देेते हैं और खुद की खुजली मिटाने के लिए कलक्ट्रेट पर जाते हैं। खैर सबका अपना-अपना तरीका है खुजली मिटाने का। फट्टे में टांग फंसाने वाली बात यह है कि दीपावली के सीजन में जिस वस्तु की अधिक मांग रहती है, वे हैं खाने-पीने की। अब इन्हीं खाने-पीने वालों पर छापामारी की जा रही है। इसका विरोध भी हो रहा है। यदि ईमानदारी से छापामारी की जा रही है, तो ईमानदारी से चीजें बनाने और बेचने वालों के पेट में दर्द उठना ही नहीं चाहिए। दर्द और मरोड़े उठें उन लोगों के उठने चाहिए, जिनकी खुद की उंगलियां शुद्ध देसी घी में रहती हैं और वे दूसरों की उंगलियां तेल में डूबोते हैं। कलक्ट्रेट पर विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों में से ईमानदार और बेईमान पहचानने के प्रयास भी किए, लेकिन किसी के माथे पर बेईमान-ईमानदार का ठप्पा लगा दिखाई ही नहीं दिया। मांग सभी की एक, छापामारी बंद करो। अब बात करें शुद्ध के लिए युद्ध अभियान की। यह अभियान भी कोई अभियान हुआ, जो सप्ताह में सिर्फ दो दिन ही चलता हो। बुधर और वीर को ही होता है शुद्ध के लिए युद्ध। बाकी के दिनों में चाहे कितना ही बाजार में सामान अशुद्ध हो, लेकिन लगता है जैसे विभाग का होता है युद्धविराम। मिलावट करने वाले मिलावट कर अपनी उंगलियां घी में रखते हैं, लेकिन छापामारी करने वाले विभाग के अधिकारियों के भला क्या उंगलियां नहीं हैं। उनके भी उंगलियां हैं। उनकी उंगलियों को भी घी अ'छा लगता है। कुछ अधिकारियों ने अपने हाथों में दस्ताने पहनकर इन्हें घी (नोट) में भिगोया हुआ है, क्योंकि उंगलियों में तो कम दस्तानों में घी लगता है। चीनी-तेल वाला विभाग तो अपनी तरफ से शुद्ध के लिए युद्ध अभियान में लगा हुआ है, लेकिन स्वास्थ्य विभाग पूरे साल कुंभकरणी नींद में क्यों सोया रहता है। इस विभाग ने ऐसी कौन सी शुद्ध गोलियां गटकी हुई हैं, जिनकी नींद खुलने का नाम ही नहीं ले रहीं। हफ्ताबंदी के लिए मशहूर इस विभाग के कुछ अधिकारी अब अचानक दीपावली के सीजन में बिलों में से बाहर निकलकर बाजारों में मिठाइयां सूंघ रहे हैं। यदि अधिकारी दीपावली के सीजन मात्र में ही मिठाइयां संूघने की बजाए सालभर समय-समय पर दवाइयां सूंघते, तो दुकानदारों के पेट में दर्द नहीं होता। खैर अधिकारियों ने ही आदत डाली है। आदत ऐसी कि जब मन में आया चल पड़े शुद्ध के लिए युद्ध अभियान का बैनर लेकर मिठाइयों को सूंघने, घी को जांचने। अधिकारियों को कभी-कभार छापामारी की आदत ने मिलावटखोरियों को भी मिलावट की लत लगा दी है। लत ऐसी लगी है, जिसे छूटने में समय तो लगेगा ही। अब भी कुछ हुआ नहीं है। विभाग के अधिकारी अपनी बिगड़ी आदतों को दूर करे। हफ्ताबंदी से परहेज करे और कभी-कभार सूंघने वाली बिमारी का इलाज करवाए। यदि विभाग के अधिकारी इन सभी का त्याग करे, तो ही शुद्ध के लिए युद्ध करे। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो जैसे छापामारी के सपने से डरकर मिठाई और दवा विक्रेताओं ने प्रदर्शन किया है, आने वाले दिनों में पर्ची सट्टा करने वाले पुलिस थानों में हमें जीने दो, सट्टा लिखने दो , शराब बेचने वाले मत करो परेशान , बिजली-पानी चोरी करने वाले हम नहीं हैं बिजली-पानी चोर जैसे अनेक अवैध कारोबारी भी प्रदर्शन करते दिखाई देंगे। वैसे एक मिलावटी का कहना भी है हम मिलावट करते हैं, लेकिन लोग चाह से खाते हैं। जब वे खाते हैं, तो उनके चेहरे खिल उठते हैं। जब लोगों को ही मिलावटी सामान खाने में स्वाद आता है, तो अधिकारी क्यों फट्टे में टांग फंसा रहे हैं। रंग-बिरंगी बूंदी भगवान के चढ़ाई जाती है। इसमें भगवान को भी एतराज नहीं। बात इस मिलावटी की भी सही है, क्योंकि अधिकारियों ने मिलावटियों को मिलावट की लत लगाई और यही लत आम लोगों को स्वाद देने लगी। अ'छी जंजीर बनी हुई है, जो टूटने का नाम ही नहीं ले रही। जंजीर टूटे या न टूटे, अपनी टांग तो चली नए फट्टे की तलाश में।

रावणजी दु:खी हैं

रामलीला मैदान की उस पिच पर, जहां आम दिनों में बॉल और बल्ले के बीच युद्ध होता था, वहां पर इस बार 70 फिट ऊंचे रावण के पुतले के माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। दशहरे वाले दिन इसी जगह पर एक अग्निबाण के साथ लाखों रुपए की राशि चंद मिनटों में विषैले धुएं और कानफोड़ू आवाज में उड़ा दी जाएगी। इसी चिंता के चलते रावण की शक्ल देखकर लगा कि इस बार वह जलने से पहले अपनी भड़ास के बम जरूर फोड़़ेगा, बाकी के सिर आतिशबाजी छोड़ेंगे। पुतले बनाने वालों ने पुतले बनाए और मैदान में खड़े भी कर दिए। बॉस ने कहा अपना शाम का अखबार है और सूर्यास्त से पहले रावण स्वर्ग सिधार जाएंगे। इसलिए पहले एकाध फोटो ले आओ। लोगों को भी पता चले कि इस बार रावण कैसा होगा। बॉस के हुक्म को सिर पर रखकर मैदान में पहुंच गया। दो सैल वाले कैमरे से जैसे ही पुतले का एंगल बनाया, तभी बड़ी कड़कदार रड़क निकालने वाली आवाज आई अरे इधर-उधर कैमरा घूमाने वाले, हर बार की तरह इस बार फिर से मेरी तरफ कैमरा लेकर पहुंच गया। चल भाग। रावण के पुतले से आवाज सुनकर मैं चौंका और डरा। अभी संभलता, इससे पहले फिर वैसी ही भड़करदार आवाज आई परेशान कर रखा है तुम लोगों ने मुझे। श्रीरामचन्द्र जी ने मेरा वध किया, लेकिन तुम लोग हो कि हर साल मुझे खड़ा कर देते हो। भला मरा हुआ खड़ा हुआ है। डरते-डरते आखिरकार मैं भी बोल पड़ा रावण जी, यह तो परंपरा चली हुई है बुराई को मिटाने की। हम तो सिर्फ निभाए जा रहे हैं। इतना कहना था कि रावण जी के बाकी सिर बारी-बारी से भड़कना शुरू हो गए। पहले वाले ने मुंह खोला ये क्या परंपरा बनाई है तुमने। पहले लाखों रुपए खर्च करते हो और फिर उसे आग लगा देते हो। धुंआ ही धुंआ, शौर ही शौर, भीड़-भाड़। बस यही है परंपरा। पहले वालेे का मुंह बंद हुआ, तो दूसरे वाले का मुंह खुला बात करते हो बुराई को मिटानी की। जब थोड़ी सी बरसात होती है, तो हाई-वे में गड्ढे हो जाते हैं। तुम चुप रहते हो और ठेकेदार पैसे कूट लेते हैं। इन्हीं सड़कों की वजह से हमें (पुतलों) मैदान तक लाते-लाते कितनी तकलीफ हुई। इंजर-पिंजर (पुतलों के) ढीले हो गए हैं। एक और मुंह बोला अरे शर्म करो शर्म। हमने तो तीर-कमान, तलवारों से युद्ध लड़े, तुमने तो अपनी जेबें भरने के लिए हथियारों के फर्जी लाइसैंस ही बांट दिए। गुण्डों तक को फर्जी लाइसैंस बांट दिए। फर्जी राशन कार्ड बनाकर देश की सुरक्षा को पर संकट खड़ा कर दिया। खाकी वर्दी पहनकर अपने आप को कानून का रखवाला कहते हो, लेकिन छोटे-मोटे सटोरियों को पकड़कर ही पीठ थपथपाते हो। बाद में मोटे सटोरिए खाकी वालों की पीठ थपथपाते हैं। शाबाश खाकी वाले भाइयों। शहर में गुंडागर्दी, चोरी-चकारी और छेड़छाड़ की घटनाएं होती हैं। असामाजिक तत्व अपनी बुराइयां लेकर गली-गली घूम रहे हैं। फिर भी सोचते हो आज के दिन पुतला फूंकने से बुराइयां मिट जाएंगी? सरकारी दफ्तरों में गांधी जी की तस्वीर लटकी है, लेकिन अधिकारी अंदर की जेबों में हजार-हजार के नोट अधिक पसंद कर रहे हैं। तनख्वाह उन्हें मोटी मिलती है, लेकिन रिश्वत वे उससे भी मोटी लेते हैं। हमें जलता देख तुम खुश होते हो, लेकिन आज ही के दिन लोगों को मिलावटी मिठाइयां खिलाकर तुम डकार तक नहीं लेते। भड़ास निकालने के लिए उतावला दिख रहा एक मुंह कहां चुप रहने वाला था। सो वह भी बोल पड़ा हां हां, अपनी जेबें भरने के लिए दूसरों को नशा बेचते हो। यह नहीं सोचते कि इसी नशे से कितने घर उजड़़ेंगे। ... अरे और तो और डीटीओ कार्यालय के बारे में ही आए दिन चर्चाएं आ रही हैं। शर्म आती है, जब हमें कोई कहता है कि हमनें तो बिना गाड़ी चलाने सीखे ही लाइसैंस बनवा लिया। सिर्फ दो-तीन सौ रुपए दिए और बिना ट्रॉयल के ही लाइसैंस हासिल कर लिया। नहरों की मरम्मत का काम बाद में शुरू करते हो, लेकिन पहले अपना घर हरे नोटों से जरूर भरते हो। नहरी कहकमे वाले भाई तो मोघे छोटे-मोटे कर ही अपनी मोटी जेब में मोटी रकम भर लेते हैं। अंत में जो मुंह बोला, उसकी भी सुन लो शहर में डेंगू फैला हुआ है और प्रशासन सिर्फ रोगियों की गिनती में लगा हुआ है। लोग एक ही दिन में खून की जांच करवाते हैं, लेकिन रिपोर्टें उन्हें अलग-अलग मिल रही हैं। अस्पताल में डॉक्टर मोबाइल पर गप्पे मारते हैं और पात्र बीपीएल परिवार दवाइयों के लिए भटकते हैं। बड़े अफसर सिर्फ निरीक्षण के बाद आदेश देते हैं, लेकिन यही आदेश धूल फांकते रहते हैं। काफी समय से तो कॉलोनियां काटकर लोगों की जेबें काटने का धंधा फल-फूला है, लेकिन इसी धंधे में अफसरों ने भी अपना फायदा सोचा। रावणजी के बाकी मुंह भी अपनी भड़ास निकालते, इससे पहले रावणजी खुद ही बोल पड़े चुप हो जाओ, मत मेरा सिर खपाओ। क्यों भैंसों (लोगों) के आगे ढोल बजा रहे हो। ये तो पुतले जला सकते हैं, खुद की बुराइयां नहीं जला सकते। हममें आग निकलते देख सकते हैं, खुद रिश्वत खाना नहीं छोड़ेंगे। हमारे मरने के दिन (दशहरे) को त्यौहार के रूप में मनाएंगे, लेकिन गंदी-गंदी मिठाइयां खिलाकर खुद अपनी जेबें भर लेंगे।... नेताजी की तो बस पूछा ही नहीं, उनकी खूबियां ही बुराइयां हैं। झूठ बोल-बोलकर वोट लेते हैं, बाद में हाथ में सोट लेकर पांच साल निकाल देते हैं। शुद्ध के लिए युद्ध अभियान चलाते हो, लेकिन भगवान को रंग-बिरंगी मिलावटी बूंदी खिलाते हो। ज्योत और यज्ञ में मिलावटी घी का प्रयोग करते हो। सिर चकरा गया, शरीर पर चीटियां दौडऩे लगी रावणजी की बातें सुनकर। अभी बेहोश होता, इससे पहले रोने की आवाज फिर आई ... और बगो ये जो हमारे पेट में पटाखे भरे हैं, वे कौन से असली हैं। आधे फूटेंगे, आधे फिस्स होंगे। जो फिस्स होंगे, वे ही हमें (पुतले) बनाने वालों की जेबें भरेंगे।... अरे मुझे जलाने वालो, जिस दिन भ्रष्टïाचार, भूखमरी और महंगाई को मिटाओगे, उसी दिन मैं मरूंगा, वरना हर बार की तरह अगली बार भी इसी तरह आपके सामने आग में जलने को तैयार मिलूंगा। रावणजी की व्यथा अभी और चलती, इससे पहले ही एक व्यक्ति श्रीरामचन्द्रजी की वेशभूषा में आया। अग्निबाण छोड़ा और चिट-पिट-पटाक-धड़ूम की आवाजों के साथ रावणजी राख में तब्दील हो गए। चंद मिनट पहले जिस मैदान में हजारों लोग खड़े थे, अब इस मैदान में सिर्फ धुंआ और राख के अलावा कुछ नहीं था। बॉस का फोन घनघनाया अरे अब तो वापिस आ जा, अखबार छप भी गया है। कैमरा हाथ में लिए ऑफिस लौटा, तो बॉस का चेहरा रावण के गुस्से वाले चेहरे से काफी मिलता-जुलता दिखाई दिया। वे बोलते, इससे पहले ही मैं बोल पड़ा बॉस आज से रावणजी की फोटो छापना बंद कर दो। यह सुनकर बॉस बोला क्यों, तुम्हें मैं तनख्वाह नहीं देता। मैं बोला तनख्वाह तो देते हो, लेकिन आज रावणजी ने अपनी व्यथा सुनाई है। बड़े दु:खी हैं रावणजी। हर साल करोड़ों रुपए के पुतले जलाकर हम दशहरा मनाते हैं, लेकिन जो फुटपाथ पर जिन्दा घूम रहे हैं, उन्हें रोटी तक नहीं देते। पुतले फूंकने से निकलने वाली आवाज हमें अ'छी लगती है, लेकिन अस्पताल में सो रहे मरीज परेशान होते हैं। मेरी बात सुनकर बॉस भी खुश हुए और बोले वाह, मजा आ गया। तुमने जो रावण की व्यथा सुनाई है, उसी को फट्टे में टांग बनाकर दे। दशहरा कल है, लेकिन अपने आज ही छापेंगे। बॉस का हुक्म था, सो मैंने भी दे दी फट्टे में टांग।

फिल्म सामूहिक भोज की टिकटें

जैसा मैं जयंतीलाल, वैसी ही मेरी पत्नी विजयंतीमाला। कंजूसी की बीमारी और लालच की आदत हम दोनों में तो है ही, साथ में अक्सर छोटी-मोटी बात को लेकर बहस का दौरा भी पड़ जाता है। मैं ठहरा मोटी तोंद वाले सेठ की छोटी तनख्वाह पर नौकरी करने वाला। हुआ यूं कि फट्टे में टांग फंसाने का ही मन कर गया। दिनभर मोटी तोंद वाले सेठ की नौकरी बजाने के बाद जब शाम को घर पहुंचा, तो पत्नी पलंग पर पसरी हुई कौन बनेगा करोड़पति देखने में मग्न थी। खाना लगाने के लिए बोला, तो जवाब मिला खाना नहीं बनाया है। अपने समाज को सबसे आगे' वाला मानते हो ना, उसी आगे वाले समाज के महाराज की कल जयंति है और बड़े-बड़े सेठ सामूहिक भोज पर हमें आमंत्रित कर गए हैं। टका सा जवाब सुनकर मैं बोला तो आज खाना बनाने की क्यों हड़ताल की है? एक दिन भूखे रह जाएंगे, तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा, आसमान फट जाएगा। ... वो देखो चिन्नू, मिन्नू और टिन्नू भी सो गए हैं बिना खाना खाए। आज और कल सुबह का खाना शाम को सामूहिक भोज में ही खाएंगे। कम से कम दो समय का खाना बचेगा और एक दिन सेठों वाला खाना भी पेट को नसीब होगा। रोज-रोज मटर की दाल खाते हैं, एक समय दाल का हलुवा भी मिल जाएगा। यह कहकर पत्नी ने गुस्सा रिमोट कंट्रोल पर उतारा और टीवी बंद किया, चद्दर को ठेठ मुंह पर लपेटकर सो गई। वाह भगवान, वाह! क्या पत्नी दी है, पूरी की पूरी मक्खी चूस दी है। ऐसी पत्नी सबको देना। मन ही मन में प्रार्थना करते-करते सोने का प्रयास किया, लेकिन भूखे पेट नींद भला कैसे आने वाली थी। सोचने लगा, क्यों न अपने जैसे समाज के कुछ भाई-बंधुओं को भी सुबह सामूहिक भोज के लिए बता दूं। रोज-रोज मटर की दाल खाने वाले समाज के लोगों को एक दिन अच्छा खाना भी मिल जाएगा। महाराज की जयंति भी मन जाएगी। सोचते-सोचते जितनी देरी से नीद आई, उतनी ही जल्दी से जाग भी आ गई। सुबह नहाया, बगाों को स्कूल छोड़ा और ऑफिस के लिए रवाना होने ही वाला था कि विजयंतीमाला बोली सामूहिक भोज में जाना है ना, शाम को जल्दी आना है। मोटी तोंद वाले मोटे सेठ की नौकरी के लिए पहुंचा, तो सेठ गायब। पता चला कि वह भी सामूहिक भोज के लिए तैयारियों में लगा हुआ है। खैर रोजाना की बजाए, शाम को जल्दी ही घर के लिए रवाना हुआ। अपने आगे वाले समाज के अन्य लोगों को सामूहिक भोज में चलने की बात कहते-कहते घर पहुंचा, तो आगे विजयंतीमाला तो दरवाजे पर ही टकरा गई। मुंह लाल-लाल, गुस्स मेें नहीं, बल्कि लिपिस्टिक, भांति-भांति की क्रीम की वजह से। अजीब सी शक्ल बनाते हुए बोली जल्दी आने का बोला था, देरी से आए हो। मैं और बगो भूखे हैं, हमारी बिलकुल ही चिंता नहीं। ... कुछ देर रुकने के बाद बोली अब कपड़े-वपड़े बदलने का नाटक मत करो, देर हो रही है। जैसे हो, वैसे ही चलो सामूहिक भोज में। एक तरह से धकेलते हुए विजयंतीमाला ने दरवाजे को हरिसन कंपनी का ताला लगाया और ऐसे चल पड़ी, जैसे किसी की शादी में शगुन देने के लिए जा रही हो। अभी कुछ ही दूर पर पहुंचे थे, हमारे ही समाज वाले करीब एक दर्जन परिवारों के बुजुर्ग और उनके करीब पचास बगो भी हमें मिले और बोले चलो-चलो, देर हो रही है। सामूहिक भोज के लिए पूरी की पूरी पलटन रवाना हो गई। ... लो जी पहुंच गए सामूहिक भोज वाले द्वार पर। अरे, ये क्या? जो लोग दरवाजे से अंदर जा रहे हैं, वे दरवाजे पर खड़े कुर्ते-पायजामे वाले व्यक्ति को एक-एक कार्ड दे रहे हैं। सोचा महाराजजी की जयंती है। इसलिए ग्रीटिंग कार्ड दे रहे हैं। जैसे नए साल पर, पन्द्रह अगस्त पर, 26 जन्वरी पर कार्ड दिए जाते हैं, वैसे ही महाराज जी की जयंति भी ग्रीटिंग कार्ड दिए जा रहे हैं। भाई साहब, ये कार्ड कहां से मिलेंगी। कतार में लगे एक व्यक्ति से जब पूछा, तो बोला ये कार्ड तो दो दिन पहले पचास रुपए में बिक रहे थे, अब नहीं बिक रहे। बिना कार्ड के अंदर भी नहीं जा सकते। यदि तुम्हे कार्ड चाहिए, तो मैं सत्तर रुपए में कार्ड दे देता हूं। लो, सामूहिक भोज का कार्ड न हुआ, मुंबई के सिनेमा में लगी फिल्म रोबोट हो गई, जिसको देखने के लिए ब्लैक में टिकटें बिक रहीं हों। क्या हुआ अंदर नहीं चलना क्या,... बहुत देर हो रही है, .... भूख लग रही है.... कितनी देर और लगेगी.... कितनी सुंदर सजावट की है... पापा जल्दी चलो ना, घर जाकर पढऩा भी तो है। एक साथ छोटे-मोटे, बड़े-बुजुर्गों, महिलाओं-पुरुषों ने तो मुंझे ही घेर लिया। नहीं जा सकते। पचास-पचास रुपए के कार्ड हैं, वे ही सामूहिक भोज कर सकते हैं। भूखे पेट वालों को यह जवाब मिला, तो गुस्सा तो आना ही था। खैर जली-भुनी, तड़क-भड़क और बीच-बीच में भद्दी बातें मुझे ही सुनने को मिली। याद आया और बोला कल इसी आगे वाले समाज की सैकिंड पार्टी की ओर से भी भोज है, उसमें चलेंगे। इतना कहा, सभी ने सुना और बड़बड़ाते हुए चल दिए घर की तरफ। महाराजजी की जयंति से एक दिन पहले एक बड़े सी जगह पर लगने वाले सामूहिक भोज वाली जगह पर भी हम खाली पेट के साथ पहुंच गए। छोटे-मोटे, बड़े-बुजुर्गों और महिलाओं-पुरुषों से घिरे जब हम मुख्य द्वार पर पहुंचे, तो वहां पर भी लाइन में लगे लोगों के हाथ में कार्ड देखे। डरते-डरते पूछना ही पड़ा, तो जवाब मिला बीस रुपए का कार्ड है, बिना कार्ड अंदर नहीं जा पाओगे। अब कार्ड भी नहीं मिलेंगे। यदि तुम्हें चाहिए, तो 40 रुपए के हिसाब से मिल जाएंगे। हवाइयां उड़ गई चेहरे से, पेट पिचक गया, दिल धड़कने लगा। अगले ही पल लगा जैसे मेरे साथ कोई अनहोनी घटना होने वाली है। मेरे साथ आए आगे वाले समाज के खाले पेट वाले लोग, कहीं मेरी सेवा न कर दे। अचानक मुंह से निकला हे स'चे पातशाह, रक्षा करीं! जेब से रुमाल निकाला, सिर पर रखा और चल दिया गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह में। पीछे-पीछे आगे वाले समाज के खाली पेट लोग। सब के सिर पर रुमाल। अब कतार में बैठे थे और तसल्ली से रोटी भी खा रहे थे। सभी ने एक-एक कर हाथ धोए, मत्था टेका, तो विजयंतीमाला ने साड़ी के पल्लू में लगी गांठ को खोलकर उसमें से पांच का सिक्का निकाला और दानपात्र में डालते हुए मत्था टेका। देखते ही देखते किसी ने एक, किसी ने दो तो किसी ने दस रुपए दानपात्र में डालकर मत्था टेका और चल दिए घर को। रास्ते में बोलते भी जा रहे थे काहे का सामूहिक भोज। पचास-पचास रुपए में सामूहिक भोज होता है, तो यहां आने की भला क्या जरूरत। घर में आलू ले जाकर आलू टिक्की बनाकर खा लेते। दूध-चावल ले जाकर खीर बनाते। ... और नहीं तो होटल में ही चले जाते। इन्हीं में से एक बोला सामूहिक भोज से अ'छा तो लंगर था, जो बिना किसी ब्लैक की टिकट के सभी को उपलब्ध हुआ। अंतिम वाले वृद्ध ने जो बात कही, वह बताए बिना तो फट्टे में फंसी टांग निकल ही नहीं सकती। वह बोला हे आगे वाले समाज के महाराजजी, कुछ अक्ल की बारिश की बूंदे हमारे समाज के लोगों पर ही डाल देते, तो उनकी बुद्धि भी हरी हो जाती। साथ ही सामूहिक भोज की फिल्म ही नहीं बनती। न फिल्म बनती और न ही टिकटें छपतीं। ... अ'छा चलता हूं, आगे वाले महाराज की जय हो के नारे के साथ।