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Saturday, October 16, 2010
रावणजी दु:खी हैं
रामलीला मैदान की उस पिच पर, जहां आम दिनों में बॉल और बल्ले के बीच युद्ध होता था, वहां पर इस बार 70 फिट ऊंचे रावण के पुतले के माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। दशहरे वाले दिन इसी जगह पर एक अग्निबाण के साथ लाखों रुपए की राशि चंद मिनटों में विषैले धुएं और कानफोड़ू आवाज में उड़ा दी जाएगी। इसी चिंता के चलते रावण की शक्ल देखकर लगा कि इस बार वह जलने से पहले अपनी भड़ास के बम जरूर फोड़़ेगा, बाकी के सिर आतिशबाजी छोड़ेंगे। पुतले बनाने वालों ने पुतले बनाए और मैदान में खड़े भी कर दिए। बॉस ने कहा अपना शाम का अखबार है और सूर्यास्त से पहले रावण स्वर्ग सिधार जाएंगे। इसलिए पहले एकाध फोटो ले आओ। लोगों को भी पता चले कि इस बार रावण कैसा होगा। बॉस के हुक्म को सिर पर रखकर मैदान में पहुंच गया। दो सैल वाले कैमरे से जैसे ही पुतले का एंगल बनाया, तभी बड़ी कड़कदार रड़क निकालने वाली आवाज आई अरे इधर-उधर कैमरा घूमाने वाले, हर बार की तरह इस बार फिर से मेरी तरफ कैमरा लेकर पहुंच गया। चल भाग। रावण के पुतले से आवाज सुनकर मैं चौंका और डरा। अभी संभलता, इससे पहले फिर वैसी ही भड़करदार आवाज आई परेशान कर रखा है तुम लोगों ने मुझे। श्रीरामचन्द्र जी ने मेरा वध किया, लेकिन तुम लोग हो कि हर साल मुझे खड़ा कर देते हो। भला मरा हुआ खड़ा हुआ है। डरते-डरते आखिरकार मैं भी बोल पड़ा रावण जी, यह तो परंपरा चली हुई है बुराई को मिटाने की। हम तो सिर्फ निभाए जा रहे हैं। इतना कहना था कि रावण जी के बाकी सिर बारी-बारी से भड़कना शुरू हो गए। पहले वाले ने मुंह खोला ये क्या परंपरा बनाई है तुमने। पहले लाखों रुपए खर्च करते हो और फिर उसे आग लगा देते हो। धुंआ ही धुंआ, शौर ही शौर, भीड़-भाड़। बस यही है परंपरा। पहले वालेे का मुंह बंद हुआ, तो दूसरे वाले का मुंह खुला बात करते हो बुराई को मिटानी की। जब थोड़ी सी बरसात होती है, तो हाई-वे में गड्ढे हो जाते हैं। तुम चुप रहते हो और ठेकेदार पैसे कूट लेते हैं। इन्हीं सड़कों की वजह से हमें (पुतलों) मैदान तक लाते-लाते कितनी तकलीफ हुई। इंजर-पिंजर (पुतलों के) ढीले हो गए हैं। एक और मुंह बोला अरे शर्म करो शर्म। हमने तो तीर-कमान, तलवारों से युद्ध लड़े, तुमने तो अपनी जेबें भरने के लिए हथियारों के फर्जी लाइसैंस ही बांट दिए। गुण्डों तक को फर्जी लाइसैंस बांट दिए। फर्जी राशन कार्ड बनाकर देश की सुरक्षा को पर संकट खड़ा कर दिया। खाकी वर्दी पहनकर अपने आप को कानून का रखवाला कहते हो, लेकिन छोटे-मोटे सटोरियों को पकड़कर ही पीठ थपथपाते हो। बाद में मोटे सटोरिए खाकी वालों की पीठ थपथपाते हैं। शाबाश खाकी वाले भाइयों। शहर में गुंडागर्दी, चोरी-चकारी और छेड़छाड़ की घटनाएं होती हैं। असामाजिक तत्व अपनी बुराइयां लेकर गली-गली घूम रहे हैं। फिर भी सोचते हो आज के दिन पुतला फूंकने से बुराइयां मिट जाएंगी? सरकारी दफ्तरों में गांधी जी की तस्वीर लटकी है, लेकिन अधिकारी अंदर की जेबों में हजार-हजार के नोट अधिक पसंद कर रहे हैं। तनख्वाह उन्हें मोटी मिलती है, लेकिन रिश्वत वे उससे भी मोटी लेते हैं। हमें जलता देख तुम खुश होते हो, लेकिन आज ही के दिन लोगों को मिलावटी मिठाइयां खिलाकर तुम डकार तक नहीं लेते। भड़ास निकालने के लिए उतावला दिख रहा एक मुंह कहां चुप रहने वाला था। सो वह भी बोल पड़ा हां हां, अपनी जेबें भरने के लिए दूसरों को नशा बेचते हो। यह नहीं सोचते कि इसी नशे से कितने घर उजड़़ेंगे। ... अरे और तो और डीटीओ कार्यालय के बारे में ही आए दिन चर्चाएं आ रही हैं। शर्म आती है, जब हमें कोई कहता है कि हमनें तो बिना गाड़ी चलाने सीखे ही लाइसैंस बनवा लिया। सिर्फ दो-तीन सौ रुपए दिए और बिना ट्रॉयल के ही लाइसैंस हासिल कर लिया। नहरों की मरम्मत का काम बाद में शुरू करते हो, लेकिन पहले अपना घर हरे नोटों से जरूर भरते हो। नहरी कहकमे वाले भाई तो मोघे छोटे-मोटे कर ही अपनी मोटी जेब में मोटी रकम भर लेते हैं। अंत में जो मुंह बोला, उसकी भी सुन लो शहर में डेंगू फैला हुआ है और प्रशासन सिर्फ रोगियों की गिनती में लगा हुआ है। लोग एक ही दिन में खून की जांच करवाते हैं, लेकिन रिपोर्टें उन्हें अलग-अलग मिल रही हैं। अस्पताल में डॉक्टर मोबाइल पर गप्पे मारते हैं और पात्र बीपीएल परिवार दवाइयों के लिए भटकते हैं। बड़े अफसर सिर्फ निरीक्षण के बाद आदेश देते हैं, लेकिन यही आदेश धूल फांकते रहते हैं। काफी समय से तो कॉलोनियां काटकर लोगों की जेबें काटने का धंधा फल-फूला है, लेकिन इसी धंधे में अफसरों ने भी अपना फायदा सोचा। रावणजी के बाकी मुंह भी अपनी भड़ास निकालते, इससे पहले रावणजी खुद ही बोल पड़े चुप हो जाओ, मत मेरा सिर खपाओ। क्यों भैंसों (लोगों) के आगे ढोल बजा रहे हो। ये तो पुतले जला सकते हैं, खुद की बुराइयां नहीं जला सकते। हममें आग निकलते देख सकते हैं, खुद रिश्वत खाना नहीं छोड़ेंगे। हमारे मरने के दिन (दशहरे) को त्यौहार के रूप में मनाएंगे, लेकिन गंदी-गंदी मिठाइयां खिलाकर खुद अपनी जेबें भर लेंगे।... नेताजी की तो बस पूछा ही नहीं, उनकी खूबियां ही बुराइयां हैं। झूठ बोल-बोलकर वोट लेते हैं, बाद में हाथ में सोट लेकर पांच साल निकाल देते हैं। शुद्ध के लिए युद्ध अभियान चलाते हो, लेकिन भगवान को रंग-बिरंगी मिलावटी बूंदी खिलाते हो। ज्योत और यज्ञ में मिलावटी घी का प्रयोग करते हो। सिर चकरा गया, शरीर पर चीटियां दौडऩे लगी रावणजी की बातें सुनकर। अभी बेहोश होता, इससे पहले रोने की आवाज फिर आई ... और बगो ये जो हमारे पेट में पटाखे भरे हैं, वे कौन से असली हैं। आधे फूटेंगे, आधे फिस्स होंगे। जो फिस्स होंगे, वे ही हमें (पुतले) बनाने वालों की जेबें भरेंगे।... अरे मुझे जलाने वालो, जिस दिन भ्रष्टïाचार, भूखमरी और महंगाई को मिटाओगे, उसी दिन मैं मरूंगा, वरना हर बार की तरह अगली बार भी इसी तरह आपके सामने आग में जलने को तैयार मिलूंगा। रावणजी की व्यथा अभी और चलती, इससे पहले ही एक व्यक्ति श्रीरामचन्द्रजी की वेशभूषा में आया। अग्निबाण छोड़ा और चिट-पिट-पटाक-धड़ूम की आवाजों के साथ रावणजी राख में तब्दील हो गए। चंद मिनट पहले जिस मैदान में हजारों लोग खड़े थे, अब इस मैदान में सिर्फ धुंआ और राख के अलावा कुछ नहीं था। बॉस का फोन घनघनाया अरे अब तो वापिस आ जा, अखबार छप भी गया है। कैमरा हाथ में लिए ऑफिस लौटा, तो बॉस का चेहरा रावण के गुस्से वाले चेहरे से काफी मिलता-जुलता दिखाई दिया। वे बोलते, इससे पहले ही मैं बोल पड़ा बॉस आज से रावणजी की फोटो छापना बंद कर दो। यह सुनकर बॉस बोला क्यों, तुम्हें मैं तनख्वाह नहीं देता। मैं बोला तनख्वाह तो देते हो, लेकिन आज रावणजी ने अपनी व्यथा सुनाई है। बड़े दु:खी हैं रावणजी। हर साल करोड़ों रुपए के पुतले जलाकर हम दशहरा मनाते हैं, लेकिन जो फुटपाथ पर जिन्दा घूम रहे हैं, उन्हें रोटी तक नहीं देते। पुतले फूंकने से निकलने वाली आवाज हमें अ'छी लगती है, लेकिन अस्पताल में सो रहे मरीज परेशान होते हैं। मेरी बात सुनकर बॉस भी खुश हुए और बोले वाह, मजा आ गया। तुमने जो रावण की व्यथा सुनाई है, उसी को फट्टे में टांग बनाकर दे। दशहरा कल है, लेकिन अपने आज ही छापेंगे। बॉस का हुक्म था, सो मैंने भी दे दी फट्टे में टांग।
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