Saturday, October 16, 2010

फिल्म सामूहिक भोज की टिकटें

जैसा मैं जयंतीलाल, वैसी ही मेरी पत्नी विजयंतीमाला। कंजूसी की बीमारी और लालच की आदत हम दोनों में तो है ही, साथ में अक्सर छोटी-मोटी बात को लेकर बहस का दौरा भी पड़ जाता है। मैं ठहरा मोटी तोंद वाले सेठ की छोटी तनख्वाह पर नौकरी करने वाला। हुआ यूं कि फट्टे में टांग फंसाने का ही मन कर गया। दिनभर मोटी तोंद वाले सेठ की नौकरी बजाने के बाद जब शाम को घर पहुंचा, तो पत्नी पलंग पर पसरी हुई कौन बनेगा करोड़पति देखने में मग्न थी। खाना लगाने के लिए बोला, तो जवाब मिला खाना नहीं बनाया है। अपने समाज को सबसे आगे' वाला मानते हो ना, उसी आगे वाले समाज के महाराज की कल जयंति है और बड़े-बड़े सेठ सामूहिक भोज पर हमें आमंत्रित कर गए हैं। टका सा जवाब सुनकर मैं बोला तो आज खाना बनाने की क्यों हड़ताल की है? एक दिन भूखे रह जाएंगे, तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा, आसमान फट जाएगा। ... वो देखो चिन्नू, मिन्नू और टिन्नू भी सो गए हैं बिना खाना खाए। आज और कल सुबह का खाना शाम को सामूहिक भोज में ही खाएंगे। कम से कम दो समय का खाना बचेगा और एक दिन सेठों वाला खाना भी पेट को नसीब होगा। रोज-रोज मटर की दाल खाते हैं, एक समय दाल का हलुवा भी मिल जाएगा। यह कहकर पत्नी ने गुस्सा रिमोट कंट्रोल पर उतारा और टीवी बंद किया, चद्दर को ठेठ मुंह पर लपेटकर सो गई। वाह भगवान, वाह! क्या पत्नी दी है, पूरी की पूरी मक्खी चूस दी है। ऐसी पत्नी सबको देना। मन ही मन में प्रार्थना करते-करते सोने का प्रयास किया, लेकिन भूखे पेट नींद भला कैसे आने वाली थी। सोचने लगा, क्यों न अपने जैसे समाज के कुछ भाई-बंधुओं को भी सुबह सामूहिक भोज के लिए बता दूं। रोज-रोज मटर की दाल खाने वाले समाज के लोगों को एक दिन अच्छा खाना भी मिल जाएगा। महाराज की जयंति भी मन जाएगी। सोचते-सोचते जितनी देरी से नीद आई, उतनी ही जल्दी से जाग भी आ गई। सुबह नहाया, बगाों को स्कूल छोड़ा और ऑफिस के लिए रवाना होने ही वाला था कि विजयंतीमाला बोली सामूहिक भोज में जाना है ना, शाम को जल्दी आना है। मोटी तोंद वाले मोटे सेठ की नौकरी के लिए पहुंचा, तो सेठ गायब। पता चला कि वह भी सामूहिक भोज के लिए तैयारियों में लगा हुआ है। खैर रोजाना की बजाए, शाम को जल्दी ही घर के लिए रवाना हुआ। अपने आगे वाले समाज के अन्य लोगों को सामूहिक भोज में चलने की बात कहते-कहते घर पहुंचा, तो आगे विजयंतीमाला तो दरवाजे पर ही टकरा गई। मुंह लाल-लाल, गुस्स मेें नहीं, बल्कि लिपिस्टिक, भांति-भांति की क्रीम की वजह से। अजीब सी शक्ल बनाते हुए बोली जल्दी आने का बोला था, देरी से आए हो। मैं और बगो भूखे हैं, हमारी बिलकुल ही चिंता नहीं। ... कुछ देर रुकने के बाद बोली अब कपड़े-वपड़े बदलने का नाटक मत करो, देर हो रही है। जैसे हो, वैसे ही चलो सामूहिक भोज में। एक तरह से धकेलते हुए विजयंतीमाला ने दरवाजे को हरिसन कंपनी का ताला लगाया और ऐसे चल पड़ी, जैसे किसी की शादी में शगुन देने के लिए जा रही हो। अभी कुछ ही दूर पर पहुंचे थे, हमारे ही समाज वाले करीब एक दर्जन परिवारों के बुजुर्ग और उनके करीब पचास बगो भी हमें मिले और बोले चलो-चलो, देर हो रही है। सामूहिक भोज के लिए पूरी की पूरी पलटन रवाना हो गई। ... लो जी पहुंच गए सामूहिक भोज वाले द्वार पर। अरे, ये क्या? जो लोग दरवाजे से अंदर जा रहे हैं, वे दरवाजे पर खड़े कुर्ते-पायजामे वाले व्यक्ति को एक-एक कार्ड दे रहे हैं। सोचा महाराजजी की जयंती है। इसलिए ग्रीटिंग कार्ड दे रहे हैं। जैसे नए साल पर, पन्द्रह अगस्त पर, 26 जन्वरी पर कार्ड दिए जाते हैं, वैसे ही महाराज जी की जयंति भी ग्रीटिंग कार्ड दिए जा रहे हैं। भाई साहब, ये कार्ड कहां से मिलेंगी। कतार में लगे एक व्यक्ति से जब पूछा, तो बोला ये कार्ड तो दो दिन पहले पचास रुपए में बिक रहे थे, अब नहीं बिक रहे। बिना कार्ड के अंदर भी नहीं जा सकते। यदि तुम्हे कार्ड चाहिए, तो मैं सत्तर रुपए में कार्ड दे देता हूं। लो, सामूहिक भोज का कार्ड न हुआ, मुंबई के सिनेमा में लगी फिल्म रोबोट हो गई, जिसको देखने के लिए ब्लैक में टिकटें बिक रहीं हों। क्या हुआ अंदर नहीं चलना क्या,... बहुत देर हो रही है, .... भूख लग रही है.... कितनी देर और लगेगी.... कितनी सुंदर सजावट की है... पापा जल्दी चलो ना, घर जाकर पढऩा भी तो है। एक साथ छोटे-मोटे, बड़े-बुजुर्गों, महिलाओं-पुरुषों ने तो मुंझे ही घेर लिया। नहीं जा सकते। पचास-पचास रुपए के कार्ड हैं, वे ही सामूहिक भोज कर सकते हैं। भूखे पेट वालों को यह जवाब मिला, तो गुस्सा तो आना ही था। खैर जली-भुनी, तड़क-भड़क और बीच-बीच में भद्दी बातें मुझे ही सुनने को मिली। याद आया और बोला कल इसी आगे वाले समाज की सैकिंड पार्टी की ओर से भी भोज है, उसमें चलेंगे। इतना कहा, सभी ने सुना और बड़बड़ाते हुए चल दिए घर की तरफ। महाराजजी की जयंति से एक दिन पहले एक बड़े सी जगह पर लगने वाले सामूहिक भोज वाली जगह पर भी हम खाली पेट के साथ पहुंच गए। छोटे-मोटे, बड़े-बुजुर्गों और महिलाओं-पुरुषों से घिरे जब हम मुख्य द्वार पर पहुंचे, तो वहां पर भी लाइन में लगे लोगों के हाथ में कार्ड देखे। डरते-डरते पूछना ही पड़ा, तो जवाब मिला बीस रुपए का कार्ड है, बिना कार्ड अंदर नहीं जा पाओगे। अब कार्ड भी नहीं मिलेंगे। यदि तुम्हें चाहिए, तो 40 रुपए के हिसाब से मिल जाएंगे। हवाइयां उड़ गई चेहरे से, पेट पिचक गया, दिल धड़कने लगा। अगले ही पल लगा जैसे मेरे साथ कोई अनहोनी घटना होने वाली है। मेरे साथ आए आगे वाले समाज के खाले पेट वाले लोग, कहीं मेरी सेवा न कर दे। अचानक मुंह से निकला हे स'चे पातशाह, रक्षा करीं! जेब से रुमाल निकाला, सिर पर रखा और चल दिया गुरूद्वारा बाबा दीप सिंह में। पीछे-पीछे आगे वाले समाज के खाली पेट लोग। सब के सिर पर रुमाल। अब कतार में बैठे थे और तसल्ली से रोटी भी खा रहे थे। सभी ने एक-एक कर हाथ धोए, मत्था टेका, तो विजयंतीमाला ने साड़ी के पल्लू में लगी गांठ को खोलकर उसमें से पांच का सिक्का निकाला और दानपात्र में डालते हुए मत्था टेका। देखते ही देखते किसी ने एक, किसी ने दो तो किसी ने दस रुपए दानपात्र में डालकर मत्था टेका और चल दिए घर को। रास्ते में बोलते भी जा रहे थे काहे का सामूहिक भोज। पचास-पचास रुपए में सामूहिक भोज होता है, तो यहां आने की भला क्या जरूरत। घर में आलू ले जाकर आलू टिक्की बनाकर खा लेते। दूध-चावल ले जाकर खीर बनाते। ... और नहीं तो होटल में ही चले जाते। इन्हीं में से एक बोला सामूहिक भोज से अ'छा तो लंगर था, जो बिना किसी ब्लैक की टिकट के सभी को उपलब्ध हुआ। अंतिम वाले वृद्ध ने जो बात कही, वह बताए बिना तो फट्टे में फंसी टांग निकल ही नहीं सकती। वह बोला हे आगे वाले समाज के महाराजजी, कुछ अक्ल की बारिश की बूंदे हमारे समाज के लोगों पर ही डाल देते, तो उनकी बुद्धि भी हरी हो जाती। साथ ही सामूहिक भोज की फिल्म ही नहीं बनती। न फिल्म बनती और न ही टिकटें छपतीं। ... अ'छा चलता हूं, आगे वाले महाराज की जय हो के नारे के साथ।

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