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Thursday, September 23, 2010
यह चप्पू और पप्पू
फट्टा देखा नहीं कि बस बिना रुके, बिना देखे और बिना सोचे-समझे फंसा दी टांग। खैर, अब जब टांग फंसा ही दी है, तो यह भी बताना होगा कि इसके पीछे मजबूरी क्या रही। मजबूरी भी ऐसी, की विस्तार से बताने के लिए काफी देर तक कलम की शान लेनी पड़ गई। बदले समय ने मजबूर कर दिया फट्टे में टांग फंसाने को। बदले समय के परिणाम कुछ हद तक आ भी गए हैं और आने वाले दिनों में जो परिणाम आएंगे, वह अच्छे कहे भी नहीं जा सकते। बात कान पर लगने वाले चप्पू उर्फ मोबाइल की है। मोबाइल बनाने वाले ने जितना माथा खपाई कर इसे बनाया था, उसने यह तो नहीं सोचा था कि इसके परिणाम इतने खतरनाक होंगे। उसने यह कभी नहीं सोचा होगा कि जो सुविधा दे रहा है, उसका दुरुपयोग अधिक होगा। जब कम्प्यूटर पर इंटरनेट की सुविधा ही बालमन व युव मन को गड्ढे में डालने में काफी थी, तो ऐसी क्या फांसी लगने वाली थी, जो इस सुविधा को मोबाइल में भी दे डाली। अब सुविधा दी है, तो भुगतो। बालमन-युवा मन डगमगाता, हिचकौले खाता टक्करें मार रहा है। रात्रि को कंबल-खेस में दुबके बच्चों की उंगलियां मच्छरों के काटने पर खुजली नहीं करती, बल्कि मोबाइल के बटनों (साइलेंट मोड)पर फुदकती रहती है। मोटी सी स्क्रीन पर आंखें फटी हुई हैं। सोचा यदि इनके पास मोबाइल और इंटरनेट न हो, तो ये आंखें बंद होती और वे सपनों की दुनियां में खोये होते। मोबाइल बात करने के लिए बनाया गया, लेकिन इन्होंने बात थोड़े ही करनी है। बात करने की सुविधा में इंटरनेट ने ऐसी टांग फंसाई कि बच्चे और युवा, मौका मिलते ही ऐसी-वैसी साइटें खोलनी शुरू कर देते हैं। की-पैड पर लगे बटनों से उंगलियों की छेड़छाड़ और स्क्रीन पर आए दृश्य देखकर अपने दिमाग का कचरा हो रहा है। धन्य हो ऐसीे-वैसी सेवाओं का और ऐसी-वैसी सेवाएं देने वाली कंपनियों का, जिन्होंने अपना लाभ सोचा, बाकी जाए गड्ढे में। पहले युवा छुप-छुपकर अश्लील किताबें पढ़ते या फिल्में देखते थे। अब फिल्मों की लाइब्रेरी ही उनकी जेब में है। धक्के खाने की भी जरूरत नहीं, क्योंकि उनकी जेब में है पूरा का पूरा सिनेमा। ऐसी-वैसी फिल्में इंटरनेट पर मिल जाएंगी, अश्लील कहानियां पढऩे की भी सुविधा मिली हुई है। खैर सेवाएं देने वालों ने तो दे दी, लेकिन अभिभावक अपनी समझदारी को कौन सी दुकान पर भूल आए, जो उन्हीं मिल ही नहीं रही। ऐसी क्या मजबूरी हुई कि अभिभावकों को अपने पप्पू के हाथ में खाने की टिफिन के साथ सर्वगुण-अवगुण संपन्न चप्पू दे डाला। आधी छुट्टी में यही बच्चा एक हाथ से मुह में रोटी का टुकड़ा ठूंस रहा है, तो दूसरे हाथ में मोबाइल से छेड़छाड़ कर रहा है। खाने का स्वाद का तो पता नहीं, लेकिन उसके माथे पर चिंता जरूर है। यार आज तो सर्वर ही डाउन है साथ बैठे साथी से अपनी चिंता बता रहा है। अब बताओ इसमें दोष किसका है। मोबाइल कंपनियों का या अभिभावकों का। बाजार में बिकने के लिए आ गया, उसे बिना सोचे-समझे खरीद लिया। यही बाद में परेशानी बन गया। आजकल एक वजह स्टंर्ड शब्द भी है। इसी शब्द ने समय को भी बदल दिया। अपना तो यही स्टंर्डर्ड है , स्टंडर्ड से जीते हैं और मोबाइल भी स्टंडर्ड का है। हालात ने ऐसी गुलाटी मारी है कि चाहे स्कूल में पढ़ाने वाला अध्यापक कितना ही अच्छा हो, पढ़ाई कितनी ही अच्छी क्वालिटी की हो, लेकिन बच्चे को बड़ी स्क्रीन, एमपी-3, एमपी-4, वीडियो, ब्लू-टु्रथ, मैमोरी कार्ड और इंटरनेट की सुविधा वाला चप्पू जरूर चाहिए। .... जैसे जब ये सुविधाएं नहीं थी, तो तब स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती होगी, लोग अनपढ़ ही रह जाते थे और अनपढ़ ही सरकारी नौकरियां हथिया लेते थे। अब ये सुविधाएं नहीं मिलेगी, तो बच्चे पढ़ नहीं पाएंगे। बच्चों की डिमांड है, सो अभिभावक पूरी भी कर रहे हैं। इसी तरह की डिमांड पूरी करने के बाद स्कूल की मासिक फीस इतनी नहीं आ रही, जितनी इंटरनेट और मोबाइल का ल्स का बिल अभिभावकों के हाथों में आ रहा है। अब यदि अभिभावक अपने बच्चों से पूछे कि इतना बिल कैसे आया, तो जवाब मिलेगा अब ढंग से पढ़ाई भी नहीं करने दे रहे। इंटरनेट पर ऐसे-ऐसे विद्वानों के विचार ढूंढेंगे, तो बिल तो आएगा ही। ये विद्वान कोई नहीं, बल्कि वैबसाइटें हैं। ऐसे विद्वानों की संख्या कम नहीं, हजारों में हैं। एक क्लिक के साथ ही विद्वानों के गंदे विचारों के साथ स्क्रीन पर आ जाएंगे। इसे विद्वानों से बचना होगा। इससे पहले अभिभावकों और बड़ों को भी अपनी गुम हुई समझदारी को ढूंढना होगा। अपने पप्पू को चप्पू जरूर दिलाओ, लेकिन सर्वगुण संपन्न के साथ, अवगुण के साथ नहीं। यदि सावधानी नही बरतीं, तो चप्पू की वजह से पप्पू फेल हो जाएगा। फेल करवाना है, या पास, यह जिम्मेदारी आपकी, लेकिन मैं तो चला नया फट्टा ढूंढने के लिए।
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